शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

थप-थप


By on 9:06 pm


गाड़ी आने की कोई सही सूचना नहीं मिल पा रही थीइधर प्यास से मेरा गला सूखे जा रहा था.  अजीब स्टेशन था बाँकुड़ा!  पानी का पाइप फट गया थादो दिन से पानी नहीं आ रहा था.  देखा- प्लेटफॉर्म पर मुश्किल से आठ-दस लोग होंगे.  प्यास का सताया मै स्टेशन से बाहर आ गया. तीन रिक्शेवाले थे- एक से पूछा तो वह शहर चलने के लिए तैयार हो गया.  बैठते ही बोला- एक सप्ताह से शहर में दंगा हैमै ज्यादा अन्दर नहीं जाउंगा. मुझे उम्मीद थी कि कोई ढाबा या रेस्तरां मिल जाएगाशहर के अन्दर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.  दस मिनट के बाद रिक्शा खड़ा हुआ तो मै चुपचाप उतर  गया.  पैसे देकर अपना बैग उठाया और चल पड़ा.   न तो कोई दूकान आदि खुली दिखीन ही कोई आदमी चलता-फिरता दिखा.  घड़ी पर नजर डाली- रेडियम की सूई ने अभी-अभी नौ की गिनती पढ़ी थी. आगे सड़क का टी-प्वाइंट आ गया तो मै अनमना हो कर बार्इं ओर मुड़ गया.  फिरऐसी स्थिति में जैसा मै अक्सर करता हूं-  जिस मकान पर छह की गिनती पूरी हुईउसके दरवाजे पर खड़ा  हो गया.  दस्तक देना चाहा तो पाया कि दरवाजा केवल उढ़काया हुआ है.  कोई है?’ की पुकार लगाते ही एक अन्दर से आवाज आई- आइए प्रभु”.  मैने अतिथि को भगवान समझने वाली बात तो सुनी थी लेकिन यह प्रभु’ का सम्बोधन सुनकर चकित-मुदित हो गया.  प्यास ने शालीनता की सीमा कुछ हद तक आगे खिसका दी थीअन्दर तक आ गया और देखा कि एक भारी-भरकम सज्जन कमर पर केवल तौलिया लपेटे खड़ेखड़े केला छील कर खा रहे हैं.  मुझे देख कर मुस्कुराए और पास की कुर्सी की ओर संकेत करते बोले- ‘‘स्थान ग्रहण करें... भूखे-प्यासे होंगेलीजिए केला खाइए.” उन्हों ने हाथ बढ़ाया तो मैने गरदन हिलाते हुए- सूखते जा रहे गले से किसी तरह कहा- ‘‘बस पानी ही पिला दें.
सज्जन या तो कुछ मज़ाकिया तबियत के थेअथवा अत्यधिक शालीन- पानी की बोतल के साथ बीयर और थम्स-अप की बोतल भी ले आए.  मैने पानी की बोतल पूरी की पूरी खाली कर दी और निढाल होकर पास की कुर्सी पर बैठ गया- मेरी आशा के अनुरूप उन्होंने कोई कोई शिकायत नहीं की.  अत्यंत नीरस वातावरण को भांपते हुए स्वत: मेरे मुंह से निकला- "क्या ऐसा भी हो सकता कि स्टेशन पर पीने का पानी तक न  मिले?  देखिये न, लाचार होकर इतनी दूर आना पड़ा..." सज्जन ने मेरी ओर देखा तक नहीं, जैसे कि - 'अब घर में घुस आने की सफाई तो दोगे ही.'
शरीर में कुछ एनर्जी आई तो मैने खड़े होकर विदा लेनी चाही- अच्छा, धन्यवाद आपका.  मै चलता हूँ.सज्जन तपाक बोल पड़े- ‘‘ऐसा कैसे होगा प्रभु!  बिना आव-भगत के आप को कैसे जाने दूंगा?  मेरे कुल-देवता क्या कहेंगे ऊपर जाने परहैं?  आप बैठिएभोजन कीजिए. रात्रि-काल हैसो शयन कीजिए.  किन्तुक्षमा कीजिएगा... आप को भोजन स्वयं बनाना पड़ेगा.  मैं किसी ऐसी अप्रत्याशित स्थिति के लिए तैयार नहीं थाकुछ भी कहने के स्थान पर चुप ही रहना उचित लगा.  मन में चिचार आया और पूछना चाहा कि घर के अन्य सदस्य कहाँ हैंकिन्तु पानी पीने के पश्चात शालीनता की सीमा पूर्ववत अपने स्थान पर आ गयी थीसो पूछना अनुचित लगा.  उनके भोजन और शयन के प्रस्ताव पर सोचने लगा- एक विकट परिस्थिति तो थी ही! न जाने स्टेशन पर कितना समय गुजरने वाला थाऔर वापस जाने के लिए फिर कोई रिक्शा मिलेगा भी कि नहीं!  मुझे आतिथ्य स्वीकार करना ही उचित लगा.  मै बोला- बताइएकिचन किधर है?  और कुछ नहीं तो मै दाल-भात तो बना ही लूंगा.”  
दाल और भात के लिए पानी उबलने को रखकर मै किचन से बाहर आकर ड्राइंग-रूम की कुर्सी पर बैठ गयाकिचन में घुटन हो रही थी.  मेरी नज़र दीवार पर टंगी एक तस्वीर पर जा टिकी- चार औरतें बैठी थी फोटो खिचवाने की मुद्रा मे. ड्राइंग-रूम की इन्हीं कुर्सियों परपहचान सकता था.  अनुमान लगाया कि दंगे के कारण परिवार की इन महिलाओं को कहीं और भेज दिया होगातभी तो बहुत दिनों से रसोई का इस्तेमाल नहीं होने कारण इतनी घुटन थी.  मुझे अनायास ही तरस आ गया- परिवार के बिचारे सदस्य!  यहाँ सज्जन इस विशाल घर की रक्षा के लिए बैठे हैंउधर बाकी लोग न जाने कैसे और कहाँ होंगे.  मुझे दंगाइयों से वैसे भी बहुत चिढ़ होती है. लोगों को मारते-पीटते हैंसामान को जलाते-फूंकते हैं और फिर उसी की भरपाई में  अप्रत्यक्ष रूप से अपनी ही कमर को कुछ और झुका लेते हैं. मैने एक मच्छर को मंडराते देखा तो अपनी आदत के अनुसार झट हथेलियों के बीच कुचल दिया. सज्जन की अचानक गर्जना सुनकर भयभीत हो गया- ‘‘दुष्टतुम्हारा साहस कैसे हुआ हिंसा करने की? सज्जन ने डाइनिंग टेबल पर रखा चाकू अपने हाथ में  उठा लिया था.  मै नर्वस हो गया- “ जी... वह अनजाने में... मुझे मच्छरों से बहुत चिढ़ हैअनेक बीमारियाँ भी फैलाते हैं- मलेरियाफ्लू ... मैने बात संभालानी चाही.   सज्जन के चेहरे की तनी नसें कुछ नरम हुर्इं और उन्होंने चाकू यथास्थान रख दिया.  उनकी दृष्टि डाइनिंग टेबल पर ही थी- ‘‘प्रभुहिंसा वर्जित है. मैने अपने जीवन-काल में इतनी हिंसा देखी है कि मामूली सी बात पर भी अपना नियंत्रण खो देता हूं.  किन्तु अब पश्चाताप.... आप ठहरिए अभी आता हूं. सज्जन तेजी से चले गए. मै और आशंकित हो गया- कोमल-हृदय वाले लगते हैंअपना अनिष्ट न कर लें. ओह! एक विपत्ति से छुटकारा पाने के लालच में कहाँ आकर घिर गया हूं.  तभी सज्जन नोटों की एक गड्डी लेकर आए और मुझे थमाते बोले- जाईए, बाजार से ही कुछ खाना लाने का कष्ट करें. यह रांधने-पकाने का झंझट पुरूषों को नहीं शोभा देता.  मैने देखा- सौ के नोटों की गड्डी थी, यानी पूरे दस हजार!  उनकी ओर देखा तो बोले- ड्रॉअर का ताला खुल ही नही रहा थातोड़ना पड़ा. अब आप इसे खोलने का मत कष्ट कीजिएदूकानदार हिसाब से पैसे लेकर बाकी वापस कर देगा. बिना बोले या प्रतिवाद किए मैंने किचन में जाकर गैस बन्द की और चुप-चाप बाहर निकल गया.  
बाहर का दृश्य पहले से कुछ और परिवर्तित हो गया थाजलने वाले बल्बों की संख्या कम हो गई थी.   यह बात तो बाहर आने से पहले मुझे याद रखना चाहिए थी कि शहर के अंदर आते समय दूकानें आदि सब कुछ बन्द मिलीं थीं.  अचानक एक विचार मन मे आया- दस हजार रूपए जेब मे हैंवापस जाना क्या आवश्यक है ऐसे विचारों वाले सज्जन को कुछ अन्तर नहीं पड़ेगा किन्तु मेरे जैसे सात-आठ सौ रुपए मासिक अर्जन करने वाले के लिए तो बहुत अन्तर होता है.  किन्तु अन्तःकरण तो विश्व की सबसे बलवान शक्ति है ईश्वर से भी बढ़कर.  अतः कुछ कदम और चल कर वापस लौट पड़ा, आगे भी सब दुकानें  बंद ही मिलनी थीं.  सज्जन को नोटों की गड्डी वापस देकर बोला- सभी दूकानें बन्द हैंघरों-मकानों मे भी कोई हलचल नहीं है. यह दंगे... सज्जन मेरी ओर देखते रहे कुछ बोले नहीं तो मैने किचन मे जाकर गैस का स्टोव फिर से जला दिया.  दाल-और चावल खौलते पतीलों मे डाल कर सज्जन के पास आकर बैठ गया- “ सोने की व्यवस्था कहाँ होगीबैग रखकर मै लुंगी पहनना चहता था. वह उनींदे लग रह रहे थेअतः मैने धीमे स्वर में पूछा.  स्टेशन से लेकर अबतक मेरा शरीर कई बार पसीने से तर हो चुका थाकपड़े उतार कर अच्छी तरह से मुंह-हाथ धोना आवश्यक था.  उनीदें से ही बोले सज्जन, आपको जो भी कमरा ठीक लगेउसमें जाकर जम जाइए...  और अपनी वह लुंगी निकाल कर मुझे दे दीजिए. बहुत दिन हो गए पहने. यह भी आप ही रखिए.  आख़िरी बात उन्होंने टेबल पर रखी नोटों की गड्डी की तरफ इशारा करते हुए कही. उनकी बात सुनकर मै अकचका गयाइतने धनी-सम्पन्न और एक लुंगी पहनने की लालसा!  औरअब इन रुपयों को मेरे पास रखने की भला क्या आवश्यकता हैकहीं सज्जन मुझे आठ-दस दिनों के लिए तो अतिथि नहीं बनाने जा रहेमुझे कल कलकत्ता पहुंच कर अपने सर्वे की रिपोर्ट सौंपनी थी.  मैने अपना बैग खोला और मुस्कुराता हुआ लुंगी निकाल कर उन्हें थमा दिया. डाइनिंग-टेबल पर रखी फलों की खाली टोकरी मे रुपयों की गड्डी को रखने के उपरान्त कमरे के अन्दर जाकर बैग रख दिया. देखने लगा- ओहकमरा कितना विशाल और भव्य था!  साज-सज्जा ऐसी किशायद टाटा-बिरला या अम्बानी भाइयों के कमरे भी ऐसे होते होंगे.  यदि बहुत फर्क होता होगा तो मेरी कल्पना का बौनापन जिम्मेवार है. मैने सोचा- सज्जन का फक्कड़पना हो या अकड़कुछ भी तो अकारण नहीं था.  धन-वैभव मानसिक परिवर्तन अवश्य करता है उसकी दिशा चाहे कुछ भी हो.  अपना मनपसंद गीत आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू. जो भी है- बस यही एक पल है' गाता हुआ कमरे से निकल कर किचन मे गया- सात-आठ मिनट लगे और दाल-भात तैयार हो गया.  रैक मे पड़ी थालियों और कटोरियों को निकाल कर धोया पोंछा और बाहर निकल कर पूछा- भोजन कर लिया जाय?  रात के बारह बजने वाले हैं. शिथिल पड़े सज्जन सजग हो गए- क्या आपने हाथ-मुंह धो लिया? मैने उत्तर दिया-  नहींसम्भव नहीं है. यह एक ही जोड़ा कुछ पहनने लायक है जो मैने अभी डाल रखा रखा है.  अब इसे पहने हुए हाथ-मुंह धोना... चिंता की कोई बात नहींमैं ठीक हूं.”  सज्जन एक ‘‘हूंऽऽ की ध्वनि निकाल कर चुप हो गए.  मै कल्पना कर सकता था- परिवार की अनुपस्थिति से लेकरदंगे-ग्रस्त इस शहर की तथा स्वयं उनकी भी तो स्थिति सोचनीय थीऐसे में कोई कितना मुखर या स्वाभाविक रह सकता है
मैने डाइनिंग-टेबल पर खाना लगा दिया और पुन: आवाज लगाई- ‘‘भोजन ठंडा हो जाएगा... श्रीमान... उठिए.”  कोई प्रतिक्रया नहीं मिली तो मुझे लगा कि उन्हें गहरी नींद आ गई हैजाकर उनका कन्धा पकड़ धीरे से हिलाया.  सज्जन जैसे घबरा कर उठ खड़े हुए और अपने हाथ-पैर हवा में नचाने लगे.  मुंह से निकलती आवाजें भी सुनीं- ‘‘भाग जाओ... दुष्ट... तुम सबको किसी दिन...”  मुझे कुछ ऊंचा बोलना पड़ाउन्हें तन्द्रा या निद्रा से बाहर लाने के लिए- ‘‘भोजन... भोजन रख दिया है. सम्भवतः दंगाइयों से उलझने का दृश्य नींद मे जीवन्त हो गया होगा. उन्होंने घूर कर मुझे देखाफिर भात-दाल कोजिसमे से भाप निकल निकल रही थी.   मै कुर्सी पर बैठा तो वह भी बैठ गए.  किचन मे रखे मर्तबान में से अचार का कुछ मसाला दाल मे मिला दिया थाभोजन स्वादिष्ट हो गया था.  भोजन के दो-तीन निवाले पेट मे गए तो माहौल हल्का-फुल्का लगने लगा.  बहुत देर से एक बात अटपटी लग रही थीन सज्जन मेरा नाम जानते थेन ही संकोच में मैने उनका पूछा था- ‘‘कभी आप से पुन: मिलना हो... मैने अपने स्वागत-कर्ता का परिचय पूछा ही नहीं.”  दो-तीन घन्टे के बाद सज्जन पुनः मुस्कुराए थे- ‘‘नहींमै नाम नहीं बताउंगा!”  उनकी बात सुनकर मुझे अपनी छोटी सी फ्रेंच-कट दाढ़ी चुभने लगी. किनु उनके प्रति मेरी श्रद्धा कुछ और बढ़ गई. क्या सही कहा- इस मारा-काटी में इससे बढ़कर कोई और उदाहरण हो ही नहीं सकता था.  यह पहचान ही तो है जो अलग-थलग रहने या रखने के लिए प्रत्यंचाएं चढ़वाती रहती है.
जूठे बरतनों को किचन में रखने के बाद कर्तव्य समझ कर जब मुख्य-द्वार बन्द करने का उपक्रम किया तो सज्जन ने मना कर दिया- ‘‘बन्द न करेंकोई कुन्डी या चिटकिनी लगाना असभ्यता है.  आप आए थे तो क्या द्वार बन्द था? सज्जन का मुस्कुराना पहले जैसा जारी था.  स्वभाव के अनुसार सज्जन न केवल सरल और विनोदी थेअत्यन्त शिक्षित और सभ्य भी.  काश!इनसे कभी और मिलना हुआ होता! इस समय तो दंगे ने सारा भूगोल ही बदल दिया था. 
बिस्तर पर आकर बैठासाइड-टेबल पर लैम्प की बगल मे दो रिमोट रखे थे.  एक का बटन दबाया तो एयर-कन्डीशनर चल पड़ा.  मेरे अनुमान के अनुसार दूसरा टी.वी. का ही निकला-  टी.वी. ऑन हुआ तो क्रिकेट-मैच का प्रसारण दिखने लगा.  मुझ जैसे के लिए यह एक अद्भुत विलासिता का अनुभव था- जीवन में  पहली बार!  मैं लुभावने और गुदगुदे बिस्तर पर पसर गया,  नींद अपना असर दिखाने लगी थी. तभी अनायास मेरी दृष्टि दरवाजे की बंद सिटकिनी पर जा पड़ी- ओह! उन्होंने तो सिटकनी लगाने को मना किया था. मै सोचने लगा कि क्या उनके उसूलों की कद्र करते हुए सिटकिनी खोल दूं?  इसी उधेड़-बुन में था तभी मैने दरवाजा थप-थपाने की आवाज सुनी.  हे रामअनर्थ!  अवश्य सज्जन ने देखना चाहा होगा कि क्या मैं दो टके का एक घटिया आदमी हूं- जो शालीनता से सर्वथा दूर है, अथवा पढ़ा-लिखा सम्भान्त- एक कुलीन व्यक्ति!  शीघ्रता से  बिस्तर से उतरा और अपने जूते देखे- एक पैर का जूता शायद बेड के नीचे चला गया था. जैसे ही देखने के लिए नीचे झुका- कानों से कुछ सुना तो जूते को अन्दर से निकालना छोड़ टी.वी. की ओर आकर्षित हो गया.  बिस्तर से उठते हुए  रिमोट का कोई बटन दबने से चैनल बदल गया होगा. टी. वी. में उद्घोषक बोल रहा था- ‘‘... इस पागल का रंग-रूप गोरा और कद छह फीट तीन इंच है.  यह कुख्यात हत्यारा और मनोरोगी अर्धेन्दु सान्याल तीसरी बार फरार हो गया है.  बाँकुड़ा या आस-पास के किसी गाँव मे छिपा हो सकता है...” 
मुझे लगा कि कमरा घूम रहा रहा है- छह फीट तीन इंच का गोरा... पागल... जेल से भागा...  मुझे याद नहीं कि इतना पसीना कभी छूटा होगा कभी, मै जूते को भूल गया.  उद्घोषक बोले जा रहा था “...  घोर लापरवाही के कारण जेल के सम्बन्धित कर्मचारियों एवं ...
आवाज तो स्पष्ट नहीं थी किन्तु दरवाजे पर पड़ने वाली थप-थप तेज होती जा रही थी.
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                                                                                                    आपको पसंद आई हो तो कृपया अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें.

About Syed Faizan Ali

Faizan is a 17 year old young guy who is blessed with the art of Blogging,He love to Blog day in and day out,He is a Website Designer and a Certified Graphics Designer.

6 टिप्पणियाँ:

  1. adbhut...kahani ka aesa ant nahi socha tha...umda lekhan...badhai.
    ......kirti rana

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    1. बहुत धन्यवाद कीर्तिजी. मै विश्वास दिलाता हूँ कि आगे भी अच्छी कहानियाँ देने का प्रयत्न करूँगा.

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  2. बहुत खूब आपके भावो का एक दम सटीक आकलन
    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    तुम मुझ पर ऐतबार करो ।

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  3. वाह, बहुत ठीक, प्रभावशाली और सार्थक प्रस्तुति.
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  4. Bahut hi achi kahani ....to kya ye bhi ek kori kalpana hi hai...?

    मैने अपने स्वागत-कर्ता का परिचय पूछा ही नहीं.”‘नहीं, मै नाम नहीं बताउंगा!” उनकी बात सुनकर मुझे अपनी छोटी सी फ्रेंच-कट दाढ़ी चुभने लगी. किनु उनके प्रति मेरी श्रद्धा कुछ और बढ़ गई. क्या सही कहा- इस मारा-काटी में इससे बढ़कर कोई और उदाहरण हो ही नहीं सकता था. यह पहचान ही तो है जो अलग-थलग रहने या रखने के लिए प्रत्यंचाएं चढ़वाती रहती है.
    best line.

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