मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

लकड़-बिल्ला


By on 4:01 am

 लकड़-बिल्ला 
यदि आपसे प्रश्न करूं कि- कोई हो- मगर नहीं हो’. अथवा कुछ नहीं हो- फिर भी हो  तो शायद आप झुंझला कर कहें कि ऐसी सुघर, कर्ण-प्रिय और बुद्धि-विदारक प्रश्नावली रच सकते हो, तो क्यों न जाकर परम-पूज्य 1008 स्वामी श्री अमुक जैसा कोई आश्रम ही खोल लेते?  पूरे देश की जनता-जनती अपने घरों में जूठा बर्तन और मैला बिस्तर छोड़, ताला मार कर तुम्हारी सभा में आ बैठेगी और चकाचक दूकान चल निकलेगी.
परन्तु मुझे इस उलझावली में सुरेश के बच्चे ने डाला था.  कल गर्मी से त्रस्त होकर ठन्डा लेने के लिये पानवाले को पचास का नोट देते हुए अपना पंजा दिखाया ही था कि सिगरेट लेने के लिए एक युवक दूकान पर आ गया. उसने पैसे देते हुए अपना दायाँ हाथ बढ़ाया, तो मैंने उसके हाथ पर बने घाव के निशान  को देख लिया.  मेरी आखों के सामने लगभग पन्द्रह वर्ष पुराना दृश्य उभर आया और मैं उछल पड़ा-
अरे सुरेश! ... तुम सुरेश ही हो न?थोड़ी  देर की चुप्पी के बाद सिर को झटका कर, पान के पीक की पिचकारी मार कर वह बोला- नहीं, मैं छुरेछ नहीं हूँ.
मैने उसकी ओर देखा तो लगा कि वह अपने दिमाग पर जोर डालने की कोशिश में लगा था. मैं उसकी मदद करते हुए बोला- अरे भाई मैं चन्दर हूं, चन्दर! पहचाना नहीं?  तुम मुझे पन्द्रह साल बाद मिले हो तो क्या हुआ, मैंने तुम्हारे हाथ पर बने निशान  को देखते ही पहचान लिया.  भला मैं कैसे भूल सकता हूं-  तुम एक दिन जंगल में अकेले चले गए थे और तुम्हें किसी लकड़-बग्घे ने हाथ में काट लिया था.
वह मिच-मिचाती आखों से मुझे देखता बोल पड़ा- तुम्हें ठीक छे याद नहीं आ रहा. मुझे किछी लकड़-बग्घे ने नहीं, एक लकड़-बिल्ले ने काटा था. और, छुरेछ ...''  मैं शहर में रहता-रहता सॉरी  बोल कर बात को सम्भालना सीख गया था.  बोल पड़ा- सॉरी यार सुरेश पहले ठन्डा पीते हैं, फिर जी भर कर बातें करेंगे.  हमारी ओर देख रहे पनवाड़ी को मैंने दोनों हाथों  के पंजे  दिखाए, तो उसने दो ठन्डे पेय की बोतलें पकड़ा दीं.  मैंने अभी पहला घूंट ही भरा था कि लकड़-बिल्ले की बात सोच कर गले में खाँसी का प्रकोप हो गया.  मैंने कण्ठ साफ करते हुए कहा-
भैया सुरेश, यह लकड़-बिल्ला क्या होता है?  लकड़-बग्घा होना तो सुना था, लेकिन यह लकड़-बिल्ला?”  वह बोला- बात यह है कि मुझ पर जिछ  जानवर ने हमला किया था, वह किछी  पेड़ छे कूदा था. मै अच्छी तरह नहीं देख पाया था, फिर भी वह कद में लकड़-बग्घे छे बहुत नीचे, लेकिन किछी बिल्ले छे ऊपर था. अब तुम्ही कहो कि उछको  क्या कहूं, लकड़-बिल्ला नहीं तो और क्या?
 उसकी बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया- जो नहीं हो, फिर भी हो ...' अच्छा हुआ, मैं ठण्डा पी रहा था.  अन्यथा, एक पल के लिए तो ऐसा लगा था कि मैं पन्द्रह सालों के बाद मिले उस सुरेश, बगल में खड़े अपने स्कूटर और पनवाड़ी के पास बाकी बचे पैसे- सब-कुछ छोड़ कर सन्यासी हो जाऊं. लेकिन ठन्डे पेय ने मन बौराने के ऊपर काबू पा लिया और मैं फिर से सुरेश को लम्बे बिछोड़े के बाद मिले हुए यार  की तरह देखने लगा.  मुझे कुछ अटपटा लग रहा था, सो लगातार मैं अपनी स्मरण-शक्ति की परीक्षा लेने में लगा हुआ था. जैसे ही पास होने की सूचना मिली, मैने पूछ लिया-
लेकिन सुरेश, तुम्हारे दांत तो मुंह से बहुत बाहर थे! अब बिलकुल सही और ठीक-ठाक लग रहे हैं, यह कैसे हुआ?  मुझे लगा वह ठन्डे पेय को पीने के साथ-साथ खा भी रहा है.  जबड़े को किटकिटाता सा बोला- क्या बात कर रहे हो, मेरे दाँत तो बचपन छे ही मुंह के अन्दर थे.  बाहर होते भैया जी, तो मैं खाता-पीता कैछे?  मुझे समझ में नहीं आया कि मेरा प्रश्न पूछने का ढंग गलत था अथवा उसका ऊत्तर देने का, मैंने बात का विषय बदल दिया-
छोड़ो इस बात को,  उस हकलाने वाले गोपी का क्या हाल है?  पाँचवी क्लास से ऊपर गया भी सही, कि ...'' वह मेरी बात काटता बोला- हकलाता तो वह अमर चौधरी था, और रहा गोपी- छो उछके पाछ तो बी. ए. की डिग्री है.  लेकिन हां, यह बात दूछरी है कि वह लकड़-बी.ए.' है.  कहना समाप्त कर वह खाली हो चुकी बोतल की तली में कुछ ढूंढ़ने लगा. अब तक सुरेश की लकड़-बाजी किसी सोटे की तरह मेरी पीठ पर सटाक-सटाक बरसने का काम करने लगी थी.  मैंने तनिक आहत स्वर में पूछा-
अरे भाई सुरेश, यह अब लकड़-बी.ए. क्या हुआ भला?  उत्तर में वह बोला- गोपी के मामा परीक्षा-केन्द्र के इन्चार्ज थे, परीक्षा में उछकी जगह पर राजेन्द्र को बिठा दिया था. अब तुम्ही देखो - अब गोपी के पास अगर डिग्री है तो वह बी.ए. कहलाएगा ही.  लेकिन, परीक्षा में उछकी जगह कोई और बैठा था, वह तो बी. ए. पाछ  नहीं हुआ न! बोलो, अब वह लकड़-बी.ए. नहीं तो क्या है?”  यह उत्तर उसने मुझे सीधी आंखो से देखते हुए दिया था- जिनमें मेरे लिए तरस के भाव थे!

सिगरेट पीने वालों की जो स्थिति हो जाती है, मेरी भी हो चुकी थी. मैने एक पनामा का सिगरेट लेकर सुलगाया तो मन में छाए धुएं के बादल बिखरने-छितराने लगे. ध्यान आया तो पूछ लिया- अरे भाई, सिगरेट के लिए पूछा ही नहीं तुम... वह मेरी बात काटता हुआ पनवाड़ी से बोला, ऊल्छ की छिगरेट देना.  मैं जब तक इस नए ब्रांड के विषय में सोचता, पनवाड़ी विल्स की डिब्बी खोलने लगा.  सुरेश ने पनवाड़ी को मीठी झिड़की दी, डिब्बी को खोल क्यों रहे हो? पनवाड़ी ऐसे विशिष्ट ग्राहकों के लिए लिए तरसते रहते हैं.  उसने पैकेट को आगे बढ़ाया तो थामता हुआ सुरेश बोला- लाइटर नहीं रखते क्या?”  पनवाड़ी ने ऊत्तर दिया, हाँ, रखा है लाइटर भी. कौन सा दूं?कहते हुए उसने आठ-दस लाईटर निकाल लिए.  जब सुरेश ने दस, बारह और बीस वाला छोड़ कर पैंतीस रुपए का लाइटर पसन्द किया तो मैने पिछले हफ्ते खरीदी अपनी कलाई घड़ी पर एक उड़ती नज़र डाली.  उसने उंगलियों को मोड़ कर पाइप की शक्ल दी और सिगरेट सुलगा ली.  सिगरेट का धुआँ मेरे मुँह पर छोड़ कर ऐसी दृष्टि डाली कि मेरा दिमाग लकड़ाने लगा. मैने ठान लिया कि अब कोई प्रश्न नहीं करूंगा, क्योंकि उत्तर परेशान  कर रहे थे-
छोड़ो इसकी-उसकी, गाँव की कुछ बातें ही बताओ.  वह धुएं के गोले के अन्दर दूसरा गोला डालने में सफल हो गया था, बोला- गाँव पर छब ठीक ही है. हाँ, पिछले छाल लछमन एक एक्छिडेंट  में मारा गया. विचारा छायिकिल छे से जा रहा था कि पीछे छे बछ ने टक्कर मार दी. कोई लकड़-ड्राईवर था, क्योंकि वह बछ तो चार छालों छे चला रहा था; लेकिन उछके पाछ लाईछेन्छ नहीं था.  विचारा लछमन!' मुझे किसी लछमन की याद नहीं आ रही थी.  हाँ- शत्रुघ्न अवश्य ध्यान में आ गया,  मैंने झट पूछ लिया- अरे, शत्रुघ्न प्रसाद का क्या हाल है, वही नथूनी पहलवान का बेटा?
पहलवान? तुम कहीं उछ लकड़-पहलवान छुदामा की बात तो नहीं कर रहे? बिचारा अब अन्धा हो गया है. उछ्की आँख में फुन्छी हुई तो डाक्टर के पाछ चला गया. एक हफ्ते के ईलाज़ के बाद उछके आँखों की रौछनी जाती रही. कोई लकड़-डाक्टर मिल गया था बिचारे को! अब तक उसकी बातें सुन-सुन कर मैं मर्म तक पहुंचने के क़रीब हो चला था, इसलिए लकड़-डाक्टर का अर्थ नहीं पूछा. उधर सुरेश था कि बोले जा रहा था- आगे की खबर है कि बेचारे अछरफी छिन्ह के यहां पूजा-पाठ और मान-मनौव्वत के बाद एक छन्तान हुई भी, तो वह लकड़-बेटा  निकला!  हफ्ते भर बाद ही हिजड़ों को खबर लग गयी, और वे गाते-बजाते उछे अपने छाथ लेकर चले गए.  मुझे लगा कि चक्कर आ जाएगा, मैने पान-वाले की गुमटी में लगी चेन को थाम लिया.  अब मैं बात का रूख़ बदलना चाहता था, पान खाने की तलब उठी. सुरेश ने पूछने पर मीठे पान की फरमाईश की तो पनवाड़ी सुरेश के लिए बीड़ा बनाने लगा.  मै तो सादी-पत्ती तम्बाकू का पान खाता हूँ, मुझे नहीं पता था कि पानवाले गरम-मसाले भी रखते हैं.  सुरेश के पान का बीड़ा था कि बंधने को तैयार नहीं था, वह बोले जा रहा था- “... वो काले वाली ... मछूर की दाल जैछी गोली डाल दो ... मुलैठी रखते हो? पहले वाले पान मे गुलकन्द बहुत कम था ... थोड़ा छा किवाम भी... नहीं, कुछ नहीं होगा, छब डाल दो...  मैंने अपना मुँह घुमा लिया था, लेकिन कनखियों से देख रहा था कि पनवाड़ी बार-बार मेरी ओर देखे जा रहा है.  हम-दोनों के बीच जैसा मूक सम्वाद चल रहा था, वह किंचित भी सार्वजनिक करने योग्य नहीं है.  पनवाड़ी ने मेरी ओर देखना बन्द कर दिया था.  एक मूक मानसिक-हन्त को कोई अपनी मुखरता से सबक पहुँचा रहा था.  जब सुरेश  ने थोड़ा और पिपरमेन्ट कहा तो उसकी क्षीण पड़ रही बोलती फिर चालू हो गयी, बाबूजी, हम तो डालिए देंगे, लेकिन फिर बीड़ा बन्धेगा नहीं.  सुरेश देखने में जितना सीधा लगा था, उतना था नहीं-  उसने पान को काट कर दो हिस्सों में खाया और मेरे अनुमान ने एक गंभीर धक्का.  बीस मिनट के बाद जब कुछ हल्कापन दिखा तो सुरेश  से बोला-
आजकल चुनावी माहौल है, किसकी लहर चल रही है?  सुरेश तनिक सीरियस होते, अपनी दाढ़ी खुजाता बोला-
लगता है, जनता लकड़ मुख्य-मन्त्री छे नाराज़ है. बहुत हुआ नौटंकी देखते-देखते.  मैं कुछ समझा, कुछ नहीं समझा;  बोल पड़ा- यह लकड़ मुख्य-मन्त्री कौन है, सुरेश?
उसने बोलने के लिए मुंह खोला तो पिछली बार की तरह इस बार होशियारी ने साथ नहीं दिया और वह गरदन से लेकर जाँघ तक पीकमय हो गया-
अपने प्रदेछ का कौन मुख्य-मंत्री है, बोलो? पूरे देछ को पता है, मीडिया छे लेकर राजनेता तक खुले-आम इस बात को कहते हैं.  किछे नहीं पता कि मुख्य-मन्त्री क्या होता है, और कौन क्या है!  अरे भाई, कबूतर ने बिल्ली को देख कर आँखें बन्द की हैं, बिल्ली की तो खुली हैं ना!  लोग-बाग इतने भी नहीं गए-बीते कि छामने की छच्चाई को नहीं समझें. यहां तो बात भी है दो-दो लकड़ मुख्य-मन्त्रियों की.  एक पत्नी - जो है, मगर नहीं है. ऊधर पति, जो नहीं है- फिर भी वही है! पूरा प्रान्त जैसे लकड़-राजनीति में उलझ गया है.
पान में चूना बहुत तेज़ था, मेरी जीभ कट गई.  मैंने पान उगलते हुए पानवाले को डाँट लगाई-
क्या लकड़-पान लगाया है तुमने, पूरी जीभ का सत्यानाश हो गया.  मै जल्दी में बोल तो गया, परन्तु अपने मुहावरे पर चकित रह गया. मुझे लगा कि अब उस सुरेश के बच्चे से पीछा छुड़ाना बहुत आवश्यक है, मैंने ज़ेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर उसे थमाते हुए कहा-
फोन पर बातें करेंगे, मेरा कार्ड रख लो. अपना कार्ड भी दे दो, अभी चलता हूं, ज़रा ज़ल्दी है.  मेरा कार्ड अपनी ज़ेब में रखकर, जब एक काग़ज पर अपना नाम और पता लिख कर दिया, तो पढ़कर मैं चौंक गया-
तुम ... सुरेश नहीं हो?... इस पर तो हरिराम लिखा है.  वह एक कश लेकर फेंके हुए सिगरेट के टुकड़े पर अपना जूता रगड़ता इतमीनान से बोला-
मैं छुरेछ नहीं, लकड़-छुरेछ हूं.  मैंने पूरा जोर लगा कर यह बात तुम्हें बतानी चाही, लेकिन तुम मेरी बोलती  बार-बार बन्द करते रहे.  तुम सुरेछ कह कर बुलाए जा रहे हो तो क्या करूं मैं छुरेछ नहीं हूं, मगर तुमने तो छुरेछ छमझ कर बात की. एक तरफ नहीं होकर भी मैं छुरेछथा, तो दूछरी ओर छुरेछ होते हुए भी नहीं था; क्योंकि मैं हरिराम चौरछिया हूं - लकड़-छुरेछ.
ख़ैर छोड़िए, जाने दीजिए पूरे किस्से को. मैं लिखना बन्द करने की आज्ञा चाहूंगा, मैं भी एक लकड़-लेखक हूं!  मैं एक लेखक होते हुए भी सच्चे मायने में नहीं हूं... उधर माना कि लेखक नहीं हूँ, फिर भी लिख तो रहा हूँ...

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                                                    कैसी लगी आपको, प्रतिक्रिया अवश्य दें.

About Syed Faizan Ali

Faizan is a 17 year old young guy who is blessed with the art of Blogging,He love to Blog day in and day out,He is a Website Designer and a Certified Graphics Designer.

2 टिप्पणियाँ:

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    सुन्दर रचना !
    कभी कभी ऐसे ही लकड सुरेश से मुलाकात होने पे क्या हो क्या ना हो .....
    शायद इसी कशमकश से बचने के लीये ....

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