मैं मैट्रिक पास करने के बाद
नौकरी की खोज में अपने शहर लुधियाने से मामाजी के पास आ गया था, जो हरियाणा के सोनीपत में रहते थे. मामाजी
फैक्ट्रियों मे खपत होने वाली डाईयों तथा केमिकल आदि के होल-सेल विक्रेता थे,
इसलिए उनकी सिफारिश पर मुझे रबर के कन्वेयर बेल्ट आदि बनाने
वाली फैक्ट्री के टाईम-ऑफिस मे नियुक्ति मिल गयी. इस
ऑफिस में कर्मचारियों की हाजिरी लगाने के साथ-साथ छुट्टियों तथा प्रॉविडेन्ट-फण्ड
आदि का हिसाब रखा जाता था. मेरी नौकरी को छह महीने बीत
चले थे, जब
फैक्ट्री को कुछ बहुत बड़े-बड़े ऑर्डर मिले. बढ़े हुए काम के चलते
कर्मचारियों की नई-नई भरतियाँ होने लगीं. चूंकि मै टाईम-ऑफिस मे था, इसलिए नौकरी के इच्छुक आए हुए लोगों के नाम-पते एवं शिक्षा आदि का
विवरण ले रहा था. उन्हीं में
से एक ने पूछने पर अपना नाम बताया- गऊरी. मैने
कहा- बस गौरी? तो वह बोला- नाहीं, अगहूं
है- गऊरी संकर. मै कुछ उतावलेपन से बोला- देखो, तुम्हें अपना पूरा नाम बताना है. गौरी शंकर के आगे
भी कुछ है कि नहीं? वह
बहुत संयत होकर बोला- मोरज. मैने उसका नाम लिख लिया- गौरी
शंकर मौर्य. उसके माता-पिता एवं पुश्तैनी निवास के बारे मे
जानकारी चाही तो उसने कहा- जिल्ला त है
सोल्तापुर, महतारी
का नाम सुमिनतरा और बाप का नाम भभीखन मोर्ज. फिर उसने अपने वर्तमान पता के विषय मे कहा- अबहीं
तौ कवनो नाहीं है, हम सीधे ‘इसपि टेलन घर’ से भिनसारी वाली मोटर
पकरि के आई रहे हैं. बाद मे समझ मे आया कि ‘ईस्ट
पटेल नगर’ बताना
चाहता था. जब उसकी शिक्षा के विषय मे पूछा कि कितना पढ़े हो, तो कुछ देर सोचा फिर बोला- दुई पन्ना! मै ऐसी किसी पढ़ाई की बात सुन कर चकित हो गया और उकता कर बोला- मै स्कूल
की पढ़ाई की बात पूछ रहा हूं. उसने अपना आत्म-विश्वास खोए
बिना उत्तर दिया- हमहूं हनुमान-चलीसा का बात करि रहे.
का बतावैं, एकै
पन्ना पढ़े माँ ससुरा दूई घन्टा लागि जात है. एक दिन संझा को फुरसत मिली रही तो
फुलवारी मे बईठि के बहुत जोर मारे
रहे सो दुई पन्ना पढ़ि डारे. सो हम दूईये पन्ना पढ़े हैं. मैंने संतोष की सांस ली कि आगे कुछ और जानकारी
नहीं चाहिए थी, अन्यथा मेरी हिम्मत साथ नहीं देती.
अगले दिन नए रखे लोगों को
फैक्ट्री के काम के बारे मे बताया-समझाया जा रहा था. जब गौरीशंकर का नम्बर आया तो मै जरा सोच मे पड़
गया. मुझे इसकी सुरक्षा से अधिक उसकी चिंता थी जो इसका सामना करता.
मुझे अचानक सूझा कि ऑफिस का चपरासी बीमार है- दो दिन से नहीं आ रहा.
मैने उसे बैठने का स्टूल दिखाते हुए गौरीशंकर से कहा कि वहाँ पर बैठा करे, जब कोई पानी आदि माँगे तो पिला दिया करे. साथ ही यह भी समझाया कि सामने पड़ने वाले अन्दर
के कमरे से बड़े साहब की घन्टी बजे तो अदब से अन्दर जा कर सुन लिया करे.
लन्च-ब्रेक के बाद गौरीशंकर दिखाई दिया तो मैने पूछा- कोई दिक्कत या परेशानी तो
नहीं हो रही? उसने
ऊत्तर दिया- “नाहीं, कवनो परेशानी तो नाहीं है, मुला आपसे एक बात बतावे का है,” और इधर-ऊधर देखने लगा. जब तसल्ली हो गई तो फुसफुसा कर बोला- “ई साहेब कवनो अच्छी साथ-संगत वाले नाहीं लगते. पाँच-सात
जने आए और दरवज्जे के बहरे से बोले कि “मै कमीन,” तो साहेब अन्दर बुलाय लिए. अब आप ही बतावे कि बेईमान और कमीने लोगन
के संग बैठना-बोलना कवनो अच्छी बात है?' मैने उसे समझाया कि वह लोग अन्दर जाने के लिए अंग्रेजी मे पूछ रहे थे, तुम धीरे-धीरे सब समझ जाओगे. फिर भी, अगले दिन एहतियात के तौर पर मैने उसे वहाँ
से हटा कर ‘प्रोडक्शन डिपार्टमेन्ट’ मे भिजवा दिया.
इसी दौरान फैक्ट्री मे
एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर की पोस्ट पर किसी एक ‘मेजर
नागरानी’ को रखा गया. लिए
रजिस्टर मे दर्ज करने के लिए मुझे उन्होंने कागजों का एक पुलिन्दा दिया, जो रिटायरमेन्ट के बाद उन्हें मिलिट्री से मिले थे. मैने पूरा ‘बायो-डाटा’ पढ़ कर जाना कि उनका पूरा
नाम मेजर पूरन चन्द नागरानी था. फैक्ट्री मे वे पी. सी. नागरानी कहे जाने लगे.
अपने लाल-भभूके चेहरे के कारण मेजर नागरानी रंग-रूप मे
गोरों-चिट्टों से भी एक सीढ़ी ऊपर लगते थे. आधी से ज्यादा सफेद हो चुकी झबरी मूंछे
देखने मे ताजी पनपी हुई पतले-पतले काँटों की तरह लगती थीं- एक दम सीधी और तनी. ऐसा
लगता था कि उगने के बाद से उन्होंने मुड़ना नहीं सीखा था- मिलिट्री के जवानों की
तरह, जो झुकना
नहीं जानते. इस पोस्ट के लिए बहुत उपयुक्त- निराला और रोबीला व्यक्तित्व था मेजर
नागरानी का.
उन्हें जानने और समझने में
फैक्ट्री के कर्मचारियों को एक सप्ताह का भी समय नहीं लगा. कर्मचारी जहाँ उन्हें
सामने देख कर आतंकित हो जाते थे, वहीं पीछे मुड़ कर मुस्कुराने लगते. अगर वह कभी किसी को अपनी कड़कती
आवाज मे कुछ कहते या डाँटते तो कोई बुरा नहीं मानता था. झिडकी या डांट खाते समय तो
सभी डरने-सहम जाने का दिखावा
करते किन्तु पीठ फेरते ही मुस्कुराने और आनंद लेने लगते. उनकी झिडकी से मानो
अन्दर ही अन्दर फुलझड़ियाँ छूटने लगतीं. उनकी अनेक विशेषताओं में उल्लेखनीय बात
थी- उनका उच्चारण. जैसे- “फैक्टड़ी मे एक मिनट का भी लेट
होने का जुड़माना, एक दिन का सैलेड़ी काट के मिलेगा.” या कभी फरमाते- “टायलेट मे जा
के आधा-आधा घन्टा क्या कड़ता है, अन्डा डालता है क्या? बीड़ी-तम्बाकू पीने का है तो लन्च-बड़ेक मे पियो.” फैक्ट्री
के सभी लोगों को पता चल गया कि उन्हें ‘र’ कहने से चिढ़ या परेशानी
थी कि वह इसके स्थान पर ‘ड़’ बोलते थे. साथ ही यह भी जान लिया कि अन्डा डालने का मतलब अन्डा देने से था.
मेजर नागरानी मुझसे बहुत प्रेम
करते थे. लन्च-ब्रेक होते ही मुझे ढूँढने लगते- “कोई देखो कि वह अपना राजीव सरमा कहाँ है?’ खोज-बीन शुरू होने से
पहले ही मै लन्च-बॉक्स लेकर पहुँच जाया करता. मुझे बहुत आश्चर्य चर्य होता था कि
मेरे लिए ‘सड़मा’ न कह कर मेजर साहब ‘सरमा’ कैसे बोल जाते थे. हो सकता
है कि अधिक लगाव के कारण अथवा मुझे बुरा न लगे- इसलिए बोल लेते थे. बीतते समय के साथ हम दोनों मे एक मूक समझौता जैसा हो गया था- वह मेरी ले
आयी हुई सब्जी-दाल खा जाते थे और मै उनकी. फिर, खाने के बाद
हम एक दूसरे से पूछ भी लिया करते थे कि कल क्या लाना है- कुछ खास? कोई स्पेशल आइटम? उत्तर भी हम दोनों का एक ही होता- नहीं, इससे बढ़िया क्या स्पेशल होगा! कभी मै कह देता कि क्या गजब के
छोले थे, कभी वह
बोल देते कि क्या मजेदाड़ कड़ेला था.
आगे की कहानी यह है कि मेजर
नागरानी से फैक्ट्री के सभी लोग प्यार करने के साथ ही उनकी इज्जत भी करने लगे थे.
उधर मेजर नागरानी भी कर्मचारियों को धमकी जरूर देते थे लेकिन कभी किसी की तनख्वाह नहीं
कटने देते थे. वह कुशलता-पूर्वक अपना
काम सिर्फ डांट-डपट कर, छोटी-मोटी सजा देकर चला लेते थे. कभी कोई कर्मचारी बेकार घूमता-फिरता
या बातें करता दिख जाता तो पहली बार केवल डाँट लगा कर छोड़ देते. किन्तु देखते कि दूसरी बार भी अनुशासन-हीनता हो
रही है तो कुछ-न-कुछ शारीरिक दण्ड अवश्य देते थे. उदाहरण के तौर पर उनका आदेश होता
कि बाउन्ड्री के साथ चार चक्कर दौड़ कर पूरा करो, अथवा कहते कि जितनी भी स्कूटर-गाड़ियाँ अहाते मे खड़ी हैं- उन पर
कपड़ा मार कर पाँच मिनट के भीतर साफ करो. फैक्ट्री के मजदूर-कर्मचारी इस प्रकार के दण्ड से बहुत घबराते थे क्योंकि
इससे बाकी लोगों मे उनकी हॅंसी उड़ती थी. मैनेजमेन्ट
के लोग आ रहे अनुशासन से प्रसन्न थे तो कर्मचारी भी ऐसे सुधारवादी कदम से खुश थे
कि कम से कम उनकी मजदूरी तो नहीं कटती थी.
अब कुछ बातें गौरीशंकर मौर्य के
विषय में- वह सदैव चारखाने की पूरी बाँह की शर्ट पहनता था. जहाँ दोनो बाजू के बटन खुले रहते, वहीं सामने के बटन कभी तरतीब से नहीं लगाए होते. मानो जाँत-पाँत या ऊँच-नीच का ख्याल करने वालों
की बिरादरी नापसंद थी. बटनों को सीध की छेद मे न लगा
कर एक दो पायदान ऊपर या नीचे लगाए होते थे. जाहिर है कि अगर एक या दो से अधिक पायदानों का अन्तर होता, तभी पता चलना संभव था. मैं यह सब देख-सुन कभी सोचने लगता कि ना-समझ और एक सन्यासी- दोनों में
कितनी समानता है! दोनों ही अपने आस-पास के जंजालों से
मुक्त और विरक्त. एक अज्ञानी के रूप में, तो दूसरा परम-ज्ञान पाकर! बाकी, हम सब तो बीच की श्रेणी में हैं- न इधर न ऊधर!
टाइम-ऑफिस मे होने कारण फैक्ट्री
के कुछ अशिक्षित कर्मचारी अक्सर मुझसे छुट्टी का प्रार्थना-पत्र आदि लिखवाने आ
जाया करते. एक दिन वही गौरीशंकर मौर्य आया और बोला- “बाबूजी, हमरी दूई दिन की छुट्टी का दरखास लिख दीजिए. हमको बोखार चढ़ि गया है, पूरा बदन पिरा रहा है.” मैने जैसे ही
कागज-कलम सम्हाली और लिखना शुरू किया, वह मुझे डिक्टेशन सा
देता बोलने लगा- “लिखिए कि सोस्ती सिरी उपमा जोग ... आगे
पत्र लिखे गऊरीसंकर मोर्ज के तरफ से बन्सल साहेब को परनाम... हमारा समाचार अच्छा
है. आगे... हमको बोखार है, सो आप दूई दिन की छुट्टी जल्दी से जल्दी देने का किरपा करिएगा. थोड़ा लिखा बहुत समझिएगा... चिट्ठी को तार बूझ
के...” मै
उसकी गाँव वाली भाषा सुन कर मुस्कुराता बोल पड़ा- अच्छा-अच्छा ठीक है, मैं लिख देता हूं- और प्रार्थना-पत्र जल्दी-लिख कर उसके सामने दस्तखत
करने के लिए रख दिया. उसने पेन को अपने अँगूठे पर रगड़ा, पर बॉल-प्वाईन्ट पेन होने के कारण स्याही नहीं निकली. वह कभी पेन तो
कभी मुझे देखने लगा. मैने पूछा कि क्या अपना नाम लिखना जानते हो? तब उसने कुछ हिचकिचाते हुए अपनी गरदन ‘हाँ’ कहने की मुद्रा मे हिलाई
और पेन को दाहिने हाथ मे कस कर पकड़ लिया. अपना नाम
लिखने की कोशिश मे उसने बहुत मुश्किल से ‘गौरी’ लिखा तो सही, लेकिन ‘र’ मे ई की मात्रा बनाते हुए इतनी जोर से पेन को दबाया कि कागज फट गया और बॉल
पेन का प्वाईन्ट टूट कर फर्श पर लुढ़कता हुआ कहीं गुम हो गया. यह किस्सा नहीं होता
तो मुझे बात याद भी नहीं रहती.
गौरी शंकर पाजामा पहनता था, जिसकी डोरी हमेशा कमीज के नीचे तक लटकती रहती थी. कभी कोई शरारती
सहकर्मी लटकती डोरी को मशीन के किसी पुर्जे मे लटका-फँसा देता और झूठ-मूठ ही शोर
मचा देता कि मेजर साहब आ रहे हैं. खड़ा या बैठा हुआ गौरी शंकर हड़बड़ा कर अपनी पोजीशन
दुरुस्त करने की कोशिश करने लगता. ऐसे में उसके पाजामे की फंसी हुई डोरी खिंच जाने
से खुल जाती तथा पाजामा नीचे आ जाता. चूंकि यह आम तौर से पूर्व-प्रायोजित
होता था, इसलिए कर्मचारी अक्सर इस दृश्य की प्रतीक्षा में
रहते. कुछ दिनों के बाद हमारी फैक्ट्री मे
एक नई मशीन आई जो लम्बे और भारी कनवेयर बेल्टों को रोल करती यानी लपेट कर बन्डल
बनाती थी. नई मशीन के पास जिन कर्मचारियों को लगाया गया था, गौरी शंकर भी उनमे से एक था. जब मशीन फिट हो गई तो उसका
ट्रॉयल लिया जाने लगा. किसी ने
ध्यान नहीं दिया कि कपड़ों को फँसने से बचाने के लिए लगाए गए सेफ्टी-गार्ड को लॉक
नहीं किया गया है. जैसे ही मशीन का स्विच दबाया गया- बिलकुल सट कर खड़े गौरी
शंकर का कुर्ता फँस गया और वह हवा मे लगभग छह फीट ऊपर टँग गया. इस प्रकरण मे पाजामे की डोरी खुल गई और वह अपने लाल रँग के लंगोट की झलक
दिखाते दुहाई देने लग गया- "अरे मरदवा, ई का भवा? हमका कोई पकरि लेव, हम हवा मे उड़ा जात हैं, भईवा." उसके इस घिघियाने पर तरस
खाकर उसकी सहायता करने के स्थान पर उपस्थित कर्मचारी इस अनोखी स्थिति का रस लेने
लगे. शोर-गुल सुनकर मेजर साहब सहित कई लोग भागे चले
आए. गौरी शंकर को नीचे उतारा गया. वह अपने कपड़े ठीक
करता मेजर साहब को सफाई देने लगा- “साहेब, हमरी कवनो गलती नाहीं, हम भोले नाथ की किरिया उठावत हैं. ई सब चउहनवा की सरारत रहा, सार हमसे जरत है.” मेजर साहब को यह सब पच नहीं पाया और वह ‘इन्वेस्टिगेट’ करने मे जुट गए.
शुरू से एक-एक सीन ‘रि-क्रियेट’ करने की कोशिश होने लगी.
जलती आँखों से देखते हुए मेजर साहब गौरी शंकर को हटाकर उसके स्थान
पर स्वयं खड़े हो गए- मानों कहना चहते हों कि तुम जैसे नालायक से कुछ भी
सम्भव नहीं. गौरी शंकर स्थान बदल जाने से अब मशीन के स्विच के पास खड़ा हो गया था.
मेजर साहब पूछ-ताछ करते हुए अन्तिम बात तक पहुँचे और उन्होंने पूछा
कि इसके बाद क्या हुआ था? प्रश्न सुनते ही गौरी शंकर ने तत्परता से अपनी ऊंगली स्विच पर रख दी
और फलस्वरूप मशीन ने मेजर साहब को हवा में! किसी को काटो तो खून नहीं! नीचे उतारे जाने के बाद देखा कि मेजर साहब का
चेहरा लाल-भभूका हो चला था, किन्तु उन्होंने गौरी शंकर को कुछ नहीं कहा- प्रत्यक्ष रूप से वह
गौरी शंकर के भोलेपन के कायल हो चुके थे!
उस साल की सर्दियाँ कुछ ज्यादा
जवानी लिए आई और अच्छे-अच्छे, हट्टे-कठ्ठे भी उसे सलाम बजाने लगे. आगे चलती जाती ठंढ भयंकर हो गई
और फलस्वरूप मजदूरों का देर से पहुँचने का सिलसिला भी बढ़ता गया. मेजर साहब यह सब देख
कर स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए स्वयं गेट पर खड़े होने लगे- ओवरकोट पहने और
फेल्ट-हैट लगाए. उन्होंने
नोट किया कि मजदूर पाँच मिनट से लेकर आधे-आधे घन्टे की देरी से आ रहे हैं.
एक-दो दिन तो कड़ाके की ठंड देखते हुए उन्होंने चेतावनी देकर छोड़ दिया, लेकिन स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आया. मेजर साहब के पास देर से
आने वालों के लिए दण्ड की घोषणा करने सिवा कोई चारा नहीं बचा था, इसलिए उन्होंने स्प्ष्ट चेतावनी दे डाली. अगले दिन पांच मिनट की देरी से आने वाले को भी
कान पकड़ कर शपथ लेनी पड़ी कि फिर कभी लेट नहीं होगा. लेकिन
जब देखा कि गौरी शंकर पूरे पैंतीस मिनट की देरी से पहुँचा है तो उनका पारा गरम हो
गया. पहले तो उसे सिर से पैर तक निहारते हुए सोचते रहे, फिर चिल्लाते बोले- “तुम
इतना-इतना देड़ी से आवेगा तो फैक्टड़ी कब चालू होवेगा? चलो, अण्डा
डालो!” गौरी
शंकर उस दिन तक अंडा-डालने वाली बात से अनजान था. उसे बात समझ में नहीं आई
तो वह उनकी मूंछों को निहारता चुप-चाप खड़ा रहा. मेजर साहब ने अपनी बात का असर नहीं होते देख फिर दुहराया- “अड़े, तुम सुना
नहीं क्या? चलो, जल्दी डालो अण्डा!” उनका आदेश गौरी शंकर तो क्या, पास खड़े नए चौकीदार तक नहीं समझ पाए. जब मेजर साहब ने कड़कती आवाज में कहा- “गलती मान के
फैक्टड़ी मे जाना है कि वापस जाना है? अन्दड़ जाना है तो फटाफट से मुड़गा बनो.” अब सभी को समझ मे आया कि मुर्गा बनने को कहा गया था. लाचार गौरी शंकर को मुर्गा बन कर अपनी एक दिन की हाजिरी बचाने में कोई
बुराई नजर नहीं आई और वह शीघ्र मुर्गा बन गया. खैर उस एक मिनट में गौरी शंकर कोई
अण्डा तो नहीं डाल सका किन्तु मेजर साहब को तसल्ली हो गई और बोले- “वेड़ी गुड, जाओ. कल से टाईम से आना.” इस नई दण्ड-संहिता को देख-सुन कर उस दिन के बाद अधिकतर कर्मचारी ठण्ड की चिन्ता किए बिना समय से आने लगे.
कभी-कभार कोई लेट हो जाता तो गेट के अन्दर घुसते ही बिना कुछ कहे-सुने स्वयं ही
अण्डा डालने का उपक्रम करने के बाद अपने कपड़े ठीक करता, फिर छाती फुला कर अन्दर चला जाता.
जिस तरह से ‘अण्डा डालो’ का मुहावरा फैक्ट्री के
कर्मचारियों में चर्चा का विषय बन गया, उसी तरह से काना-फूसी भी होने लग गई कि अण्डा तो बस मुर्गियाँ ही
डालती हैं, मुर्गे
हरगिज नहीं डालते! मुर्गा बनने
के लिए कहा जाय तो बात ठीक है, लेकिन अण्डा डालने वाली बात तो सरासर मर्दानगी को चुनौती है. जैसे कि ऐसे में अक्सर होता है- सीधे-सादे
कर्मचारियों को यह बात अपमान-जनक लगी और दिल में चुभने लगी. भला चुभती भी कैसे नहीं, कुल मिला कर इज्जत ही तो उनकी एक-मात्र सम्पत्ति थी. उनकी मर्दानगी को ललकारने वाली कोई भी बात
इज्जत और मर्यादा को आँच पहुँचाने वाली थी. जो कर्मचारी जितना कम अशिक्षित था वह
बात को उतनी ही अधिक गम्भीरता से लिए जा रहा था, कहने की बात नहीं कि इनमे से गौरी शंकर प्रथम पंक्ति मे था.
मुझे अच्छी तरह से याद है- लगभग
बीस दिन हो चुके थे और उस दिन बला की ठण्ड थी. साथ में घना कोहरा भी घिर आया था. मै फैक्ट्री आते समय स्वेटर और कोट के बावजूद ठण्ड से काँपे जा रहा था तथा
मफलर को बार-बार ठीक करता आया था. कुछ देर के बाद हवा चलने लगी तब कोहरा तो
छँट गया लेकिन ठण्ड और सूईयाँ चूभोने लगी. मै सोचने लगा था कि आज आधे कर्मचारी भी
नहीं अन्दर नहीं जा पाएंगे, लेट होना जैसे एक आवश्यकता हो गई थी! गेट के अन्दर आया तो मेरा सोचना ठीक निकला- फैक्ट्री का हूटर बज चुका था, कर्मचारियों का आना अभी भी जारी था. विशेष सह्मदयता का परिचय
देते हुए मेजर साहब ने दस मिनट तक देरी से आने वालों को कुछ नहीं कहा, किन्तु उनमे गौरी शंकर नहीं था. उस दिन वह पूरे पैंतीस मिनट की देरी से आया. मेजर साहब ने देखते ही
अपना दण्ड-सूत्र सुनाया- “अब अण्डा डालो गौड़ी शंकड़!” गौरी शंकर आदेश को अनसुना करते हुए चुप-चाप खड़ा रहा तो मेजर साहब को
उसकी उद्दण्डता पर बहुत आश्चर्य हुआ. उन्होनें फिर अपना आदेश दुहराया तो अपने पाजामे की लटकती डोरी को
सम्हालता- उकड़ू हो कर बैठने जा रहे गौरी शंकर ने आर्त-स्वर मे याचना की- “साहेब, हमसे
अण्डा मत डलवाईए, हमको
अच्छा नहीं लगता है. आप हमको बैल बनने को कह दीजिए, भैंसा चाहे गदहा भी बनने को बोल दीजिए. चाहे तो आप गोबर डलवा लीजिए, नहीं तो लीद परवा लीजिए साहेब. लेकिन ई अण्डा डालने, मतलब कि मुरगी वाला काम करने को मत कहिए. हम तो मरद हैं, मुरगा बन सकते हैं. लेकिन साहेब, मुर्गा अण्डा कैसे डालेगा?”
उसकी गुहार सुन कर मेजर साहब की हँसी छूट गई तो
बाकी खड़े लोग भी मुस्कुराने लगे. उन्हें हँसता देख गौरी शंकर सीधा उठ खड़ा
हुआ और बोला-
“साहेब एक बात कहना है... आपका ‘गोंछ’ देख कर हमको बहुत अच्छा लगता है,” और फैक्ट्री के अन्दर भाग चला. मैने मुस्कुराते हुए मेजर साहब को बताया कि ऊत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ
हिस्सों की ठेठ पूरबी/भोजपुरी भाषा में ‘मूंछ’ को ‘गोंछ’ कहा जाता है.
गौरी शंकर ने मेरी शब्दावली को और समृद्ध कर दिया था.
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