सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

अण्डा डाल


मैं मैट्रिक पास करने के बाद नौकरी की खोज में अपने शहर लुधियाने से मामाजी के पास आ गया था, जो हरियाणा के सोनीपत में रहते थे. मामाजी फैक्ट्रियों मे खपत होने वाली डाईयों तथा केमिकल आदि के होल-सेल विक्रेता थे,  इसलिए उनकी सिफारिश पर मुझे रबर के कन्वेयर बेल्ट आदि बनाने वाली फैक्ट्री के टाईम-ऑफिस मे नियुक्ति मिल गयी.  इस ऑफिस में कर्मचारियों की हाजिरी लगाने के साथ-साथ छुट्टियों तथा प्रॉविडेन्ट-फण्ड आदि का हिसाब रखा जाता था.  मेरी नौकरी को छह महीने बीत चले थे, जब फैक्ट्री को कुछ बहुत बड़े-बड़े ऑर्डर मिले.  बढ़े हुए काम के चलते कर्मचारियों की नई-नई भरतियाँ होने लगीं.   चूंकि मै टाईम-ऑफिस मे था, इसलिए नौकरी के इच्छुक आए हुए लोगों के नाम-पते एवं शिक्षा आदि का विवरण ले रहा था.  उन्हीं में से एक ने पूछने पर अपना नाम बताया- गऊरी.   मैने कहा- बस गौरी?  तो वह बोला-  नाहीं, अगहूं है- गऊरी संकर. मै कुछ उतावलेपन से बोला- देखो, तुम्हें अपना पूरा नाम बताना है. गौरी शंकर के आगे भी कुछ है कि नहीं?  वह बहुत संयत होकर बोला- मोरज.  मैने उसका नाम लिख लिया- गौरी शंकर मौर्य. उसके माता-पिता एवं पुश्तैनी निवास के बारे मे जानकारी चाही तो  उसने कहा- जिल्ला त है सोल्तापुर, महतारी का नाम सुमिनतरा और बाप का नाम भभीखन मोर्ज.  फिर उसने अपने वर्तमान पता के विषय मे कहा- अबहीं तौ कवनो नाहीं है, हम सीधे इसपि टेलन घर से भिनसारी वाली मोटर पकरि के आई रहे हैं.  बाद मे समझ मे आया कि ईस्ट पटेल नगर बताना चाहता था. जब उसकी शिक्षा के विषय मे पूछा कि कितना पढ़े हो, तो कुछ देर सोचा फिर बोला- दुई पन्ना!  मै ऐसी किसी पढ़ाई की बात सुन कर चकित हो गया और उकता कर बोला- मै स्कूल की पढ़ाई की बात पूछ रहा हूं.  उसने अपना आत्म-विश्वास खोए बिना उत्तर दिया-  हमहूं हनुमान-चलीसा का बात करि रहे. का बतावैं, एकै पन्ना पढ़े माँ ससुरा दूई घन्टा लागि जात है. एक दिन संझा को फुरसत मिली रही तो फुलवारी मे  बईठि के बहुत जोर मारे रहे सो दुई पन्ना पढ़ि डारे. सो हम दूईये पन्ना पढ़े हैं.  मैंने संतोष की सांस ली कि आगे कुछ  और जानकारी नहीं चाहिए थी, अन्यथा मेरी हिम्मत साथ नहीं देती.
अगले दिन नए रखे लोगों को फैक्ट्री के काम के बारे मे बताया-समझाया जा रहा था.  जब गौरीशंकर का नम्बर आया तो मै जरा सोच मे पड़ गया.  मुझे इसकी सुरक्षा से अधिक उसकी चिंता थी जो इसका सामना करता.  मुझे अचानक सूझा कि ऑफिस का चपरासी बीमार है- दो दिन से नहीं आ रहा.  मैने उसे बैठने का स्टूल दिखाते हुए गौरीशंकर से कहा कि वहाँ पर बैठा करे, जब कोई पानी आदि माँगे तो पिला दिया करे.  साथ ही यह भी समझाया कि सामने पड़ने वाले अन्दर के कमरे से बड़े साहब की घन्टी बजे तो अदब से अन्दर जा कर सुन लिया करे. लन्च-ब्रेक के बाद गौरीशंकर दिखाई दिया तो मैने पूछा- कोई दिक्कत या परेशानी तो नहीं हो रही उसने ऊत्तर दिया- नाहीं, कवनो परेशानी तो नाहीं है, मुला आपसे एक बात बतावे का है, और इधर-ऊधर देखने लगा. जब तसल्ली हो गई तो फुसफुसा कर बोला- ई साहेब कवनो अच्छी साथ-संगत वाले नाहीं लगते. पाँच-सात जने आए और दरवज्जे के बहरे से बोले कि मै कमीन, तो साहेब अन्दर बुलाय लिए. अब आप ही बतावे कि बेईमान और कमीने लोगन के संग बैठना-बोलना कवनो अच्छी बात है?'  मैने उसे समझाया कि वह लोग अन्दर जाने के लिए अंग्रेजी मे पूछ रहे थे, तुम धीरे-धीरे सब समझ जाओगे.  फिर भी, अगले दिन एहतियात के तौर पर मैने उसे वहाँ से हटा कर प्रोडक्शन डिपार्टमेन्ट मे भिजवा दिया.
इसी दौरान फैक्ट्री मे एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर की पोस्ट पर किसी एक मेजर नागरानीको रखा गया.  लिए रजिस्टर मे दर्ज करने के लिए मुझे उन्होंने कागजों का एक पुलिन्दा दिया, जो रिटायरमेन्ट के बाद उन्हें मिलिट्री से मिले थे.  मैने पूरा बायो-डाटा पढ़ कर जाना कि उनका पूरा नाम मेजर पूरन चन्द नागरानी था. फैक्ट्री मे वे पी. सी. नागरानी कहे जाने लगे.  अपने लाल-भभूके चेहरे के कारण मेजर नागरानी रंग-रूप मे गोरों-चिट्टों से भी एक सीढ़ी ऊपर लगते थे. आधी से ज्यादा सफेद हो चुकी झबरी मूंछे देखने मे ताजी पनपी हुई पतले-पतले काँटों की तरह लगती थीं- एक दम सीधी और तनी. ऐसा लगता था कि उगने के बाद से उन्होंने मुड़ना नहीं सीखा था- मिलिट्री के जवानों की तरह, जो झुकना नहीं जानते. इस पोस्ट के लिए बहुत उपयुक्त- निराला और रोबीला व्यक्तित्व था मेजर नागरानी का. 
उन्हें जानने और समझने में फैक्ट्री के कर्मचारियों को एक सप्ताह का भी समय नहीं लगा. कर्मचारी जहाँ उन्हें सामने देख कर आतंकित हो जाते थे, वहीं पीछे मुड़ कर मुस्कुराने लगते. अगर वह कभी किसी को अपनी कड़कती आवाज मे कुछ कहते या डाँटते तो कोई बुरा नहीं मानता था. झिडकी या डांट खाते समय तो सभी डरने-सहम जाने  का दिखावा करते किन्तु पीठ फेरते ही मुस्कुराने और आनंद लेने लगते.  उनकी झिडकी से मानो अन्दर ही अन्दर फुलझड़ियाँ छूटने लगतीं. उनकी अनेक विशेषताओं में उल्लेखनीय बात थी- उनका उच्चारण. जैसे- फैक्टड़ी मे एक मिनट का भी लेट होने का जुड़माना, एक दिन का सैलेड़ी काट के मिलेगा.  या कभी फरमाते- टायलेट मे जा के आधा-आधा घन्टा क्या कड़ता है, अन्डा डालता है क्या? बीड़ी-तम्बाकू पीने का है तो लन्च-बड़ेक मे पियो.  फैक्ट्री के सभी लोगों को पता चल गया कि उन्हें  कहने से चिढ़ या परेशानी थी कि वह इसके स्थान पर ड़ बोलते थे.  साथ ही यह भी जान लिया कि अन्डा डालने का मतलब अन्डा देने से था.
मेजर नागरानी मुझसे बहुत प्रेम करते थे. लन्च-ब्रेक होते ही मुझे ढूँढने लगते- कोई देखो कि वह अपना राजीव सरमा कहाँ है?’ खोज-बीन शुरू होने से पहले ही मै लन्च-बॉक्स लेकर पहुँच जाया करता. मुझे बहुत आश्चर्य चर्य होता था कि मेरे लिए सड़मा न कह कर मेजर साहब सरमा कैसे बोल जाते थे. हो सकता है कि अधिक लगाव के कारण अथवा मुझे बुरा न लगे- इसलिए बोल लेते थे.  बीतते समय के साथ हम दोनों मे एक मूक समझौता जैसा हो गया था- वह मेरी ले आयी हुई सब्जी-दाल खा जाते थे और मै उनकी. फिर, खाने के बाद हम एक दूसरे से पूछ भी लिया करते थे कि कल क्या लाना है- कुछ खास? कोई स्पेशल आइटम उत्तर भी हम दोनों का एक ही होता- नहीं, इससे बढ़िया क्या स्पेशल होगा!  कभी मै कह देता कि क्या गजब के छोले थे, कभी वह बोल देते कि क्या मजेदाड़ कड़ेला था.
आगे की कहानी यह है कि मेजर नागरानी से फैक्ट्री के सभी लोग प्यार करने के साथ ही उनकी इज्जत भी करने लगे थे. उधर मेजर नागरानी भी कर्मचारियों को धमकी जरूर देते थे लेकिन कभी किसी की तनख्वाह नहीं कटने देते थे.  वह कुशलता-पूर्वक अपना काम सिर्फ डांट-डपट कर, छोटी-मोटी सजा देकर चला लेते थे. कभी कोई कर्मचारी बेकार घूमता-फिरता या बातें करता दिख जाता तो पहली बार केवल डाँट लगा कर छोड़ देते.  किन्तु देखते कि दूसरी बार भी अनुशासन-हीनता हो रही है तो कुछ-न-कुछ शारीरिक दण्ड अवश्य देते थे. उदाहरण के तौर पर उनका आदेश होता कि बाउन्ड्री के साथ चार चक्कर दौड़ कर पूरा करो, अथवा कहते कि जितनी भी स्कूटर-गाड़ियाँ अहाते मे खड़ी हैं- उन पर कपड़ा मार कर पाँच मिनट के भीतर साफ करो.  फैक्ट्री के मजदूर-कर्मचारी इस प्रकार के दण्ड से बहुत घबराते थे क्योंकि इससे बाकी लोगों मे उनकी हॅंसी उड़ती थी.  मैनेजमेन्ट के लोग आ रहे अनुशासन से प्रसन्न थे तो कर्मचारी भी ऐसे सुधारवादी कदम से खुश थे कि कम से कम उनकी मजदूरी तो नहीं कटती थी.
अब कुछ बातें गौरीशंकर मौर्य के विषय में- वह सदैव चारखाने की पूरी बाँह की शर्ट पहनता था.  जहाँ दोनो बाजू के बटन खुले रहते, वहीं सामने के बटन कभी तरतीब से नहीं लगाए होते.  मानो जाँत-पाँत या ऊँच-नीच का ख्याल करने वालों की बिरादरी नापसंद थी.  बटनों को सीध की छेद मे न लगा कर एक दो पायदान ऊपर या नीचे लगाए होते थे. जाहिर है कि अगर एक या दो से अधिक  पायदानों का अन्तर होता, तभी पता चलना संभव था.  मैं यह सब देख-सुन कभी सोचने लगता कि ना-समझ और एक सन्यासी- दोनों में कितनी समानता है!  दोनों ही अपने आस-पास के जंजालों से मुक्त और विरक्त. एक अज्ञानी के रूप में, तो दूसरा परम-ज्ञान पाकर!  बाकी, हम सब तो बीच की श्रेणी में हैं- न इधर न ऊधर!
टाइम-ऑफिस मे होने कारण फैक्ट्री के कुछ अशिक्षित कर्मचारी अक्सर मुझसे छुट्टी का प्रार्थना-पत्र आदि लिखवाने आ जाया करते. एक दिन वही गौरीशंकर मौर्य आया और बोला- बाबूजी, हमरी दूई दिन की छुट्टी का दरखास लिख दीजिए. हमको बोखार चढ़ि गया है, पूरा बदन पिरा रहा है.  मैने जैसे ही कागज-कलम सम्हाली और लिखना शुरू किया, वह मुझे डिक्टेशन सा देता बोलने लगा- लिखिए कि सोस्ती सिरी उपमा जोग ... आगे पत्र लिखे गऊरीसंकर मोर्ज के तरफ से बन्सल साहेब को परनाम... हमारा समाचार अच्छा है. आगे... हमको बोखार है, सो आप दूई दिन की छुट्टी जल्दी से जल्दी देने का किरपा करिएगा.  थोड़ा लिखा बहुत समझिएगा... चिट्ठी को तार बूझ के... मै उसकी गाँव वाली भाषा सुन कर मुस्कुराता बोल पड़ा- अच्छा-अच्छा ठीक है, मैं लिख देता हूं- और प्रार्थना-पत्र जल्दी-लिख कर उसके सामने दस्तखत करने के लिए रख दिया. उसने पेन को अपने अँगूठे पर रगड़ा, पर बॉल-प्वाईन्ट पेन होने के कारण स्याही नहीं निकली. वह कभी पेन तो कभी मुझे देखने लगा. मैने पूछा कि क्या अपना नाम लिखना जानते हो?  तब उसने कुछ हिचकिचाते हुए अपनी गरदन ‘हाँ’ कहने की मुद्रा मे हिलाई और पेन को दाहिने हाथ मे कस कर पकड़ लिया.  अपना नाम लिखने की कोशिश मे उसने बहुत मुश्किल से गौरी लिखा तो सही, लेकिन  मे ई की मात्रा बनाते हुए इतनी जोर से पेन को दबाया कि कागज फट गया और बॉल पेन का प्वाईन्ट टूट कर फर्श पर लुढ़कता हुआ कहीं गुम हो गया. यह किस्सा नहीं होता तो मुझे बात याद भी नहीं रहती.
गौरी शंकर पाजामा पहनता था, जिसकी डोरी हमेशा कमीज के नीचे तक लटकती रहती थी. कभी कोई शरारती सहकर्मी लटकती डोरी को मशीन के किसी पुर्जे मे लटका-फँसा देता और झूठ-मूठ ही शोर मचा देता कि मेजर साहब आ रहे हैं. खड़ा या बैठा हुआ गौरी शंकर हड़बड़ा कर अपनी पोजीशन दुरुस्त करने की कोशिश करने लगता. ऐसे में उसके पाजामे की फंसी हुई डोरी खिंच जाने से खुल जाती तथा पाजामा नीचे आ जाता.  चूंकि यह आम तौर से पूर्व-प्रायोजित होता था, इसलिए कर्मचारी अक्सर इस दृश्य की प्रतीक्षा में रहते.  कुछ दिनों के बाद हमारी फैक्ट्री मे एक नई मशीन आई जो लम्बे और भारी कनवेयर बेल्टों को रोल करती यानी लपेट कर बन्डल बनाती थी. नई मशीन  के पास जिन कर्मचारियों को लगाया गया था, गौरी शंकर  भी उनमे से एक था.  जब मशीन फिट हो गई तो उसका ट्रॉयल लिया जाने लगा.  किसी ने ध्यान नहीं दिया कि कपड़ों को फँसने से बचाने के लिए लगाए गए सेफ्टी-गार्ड को लॉक नहीं किया गया है. जैसे ही मशीन  का स्विच दबाया गया- बिलकुल सट कर खड़े गौरी शंकर का कुर्ता फँस गया और वह हवा मे लगभग छह फीट ऊपर टँग गया.  इस प्रकरण मे पाजामे की डोरी खुल गई और वह अपने लाल रँग के लंगोट की झलक दिखाते दुहाई देने लग गया- "अरे मरदवा, ई का भवा हमका कोई पकरि लेव, हम हवा मे उड़ा जात हैं, भईवा."  उसके इस घिघियाने पर तरस खाकर उसकी सहायता करने के स्थान पर उपस्थित कर्मचारी इस अनोखी स्थिति का रस लेने लगे.  शोर-गुल सुनकर मेजर साहब सहित कई लोग भागे चले आए.  गौरी शंकर को नीचे उतारा गया. वह अपने कपड़े ठीक करता मेजर साहब को सफाई देने लगा- साहेब, हमरी कवनो गलती नाहीं, हम भोले नाथ की किरिया उठावत हैं. ई सब चउहनवा की सरारत रहा, सार हमसे जरत है.  मेजर साहब को यह सब पच नहीं पाया और वह इन्वेस्टिगेट करने मे जुट गए.  शुरू से एक-एक सीन रि-क्रियेट करने की कोशिश होने लगी.  जलती आँखों से देखते हुए मेजर साहब गौरी शंकर को हटाकर उसके स्थान पर स्वयं खड़े हो गए- मानों कहना चहते हों कि तुम  जैसे नालायक से कुछ भी सम्भव नहीं. गौरी शंकर स्थान बदल जाने से अब मशीन के स्विच के पास खड़ा हो गया था.  मेजर साहब पूछ-ताछ करते हुए अन्तिम बात तक पहुँचे और उन्होंने पूछा कि इसके बाद क्या हुआ था? प्रश्न सुनते ही गौरी शंकर ने तत्परता से अपनी ऊंगली स्विच पर रख दी और फलस्वरूप मशीन ने मेजर साहब को हवा में! किसी को काटो तो खून नहीं!  नीचे उतारे जाने के बाद देखा कि मेजर साहब का चेहरा लाल-भभूका हो चला था, किन्तु उन्होंने गौरी शंकर को कुछ नहीं कहा- प्रत्यक्ष रूप से वह गौरी शंकर के भोलेपन के कायल हो चुके थे!
उस साल की सर्दियाँ कुछ ज्यादा जवानी लिए आई और अच्छे-अच्छे, हट्टे-कठ्ठे भी उसे सलाम बजाने लगे. आगे चलती जाती ठंढ भयंकर हो गई और फलस्वरूप मजदूरों का देर से पहुँचने का सिलसिला भी बढ़ता गया. मेजर साहब यह सब देख कर स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए स्वयं गेट पर खड़े होने लगे- ओवरकोट पहने और फेल्ट-हैट लगाए.  उन्होंने नोट किया कि मजदूर पाँच मिनट से लेकर आधे-आधे घन्टे की देरी से आ रहे हैं.  एक-दो दिन तो कड़ाके की ठंड देखते हुए उन्होंने चेतावनी देकर छोड़ दिया, लेकिन स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आया. मेजर साहब के पास देर से आने वालों के लिए दण्ड की घोषणा करने सिवा कोई चारा नहीं बचा था, इसलिए उन्होंने स्प्ष्ट चेतावनी दे डाली.  अगले दिन पांच मिनट की देरी से आने वाले को भी कान पकड़ कर शपथ लेनी पड़ी कि फिर कभी लेट नहीं होगा.  लेकिन जब देखा कि गौरी शंकर पूरे पैंतीस मिनट की देरी से पहुँचा है तो उनका पारा गरम हो गया. पहले तो उसे सिर से पैर तक निहारते हुए सोचते रहे, फिर चिल्लाते बोले- तुम इतना-इतना देड़ी से आवेगा तो फैक्टड़ी कब चालू होवेगा चलो, अण्डा डालो!  गौरी शंकर उस दिन तक अंडा-डालने वाली बात से अनजान था.  उसे बात समझ में नहीं आई तो वह उनकी मूंछों को निहारता चुप-चाप खड़ा रहा.  मेजर साहब ने अपनी बात का असर नहीं होते देख फिर दुहराया- अड़े, तुम सुना नहीं क्या? चलो, जल्दी डालो अण्डा!  उनका आदेश गौरी शंकर  तो क्या, पास खड़े नए चौकीदार तक नहीं समझ पाए.  जब मेजर साहब ने कड़कती आवाज में कहा- गलती मान के फैक्टड़ी मे जाना है कि वापस जाना है? अन्दड़ जाना है तो फटाफट से मुड़गा बनो.  अब सभी को समझ मे आया कि मुर्गा बनने को कहा गया था.  लाचार गौरी शंकर को मुर्गा बन कर अपनी एक दिन की हाजिरी बचाने में कोई बुराई नजर नहीं आई और वह शीघ्र मुर्गा बन गया. खैर उस एक मिनट में गौरी शंकर कोई अण्डा तो नहीं डाल सका किन्तु मेजर साहब को तसल्ली हो गई और बोले- वेड़ी गुड, जाओ. कल से टाईम से आना.  इस नई दण्ड-संहिता को देख-सुन कर उस दिन के बाद अधिकतर कर्मचारी  ठण्ड की चिन्ता किए बिना समय से आने लगे. कभी-कभार कोई लेट हो जाता तो गेट के अन्दर घुसते ही बिना कुछ कहे-सुने स्वयं ही अण्डा डालने का उपक्रम करने के बाद अपने कपड़े ठीक करता, फिर छाती फुला कर अन्दर चला जाता.
जिस तरह से अण्डा डालो का मुहावरा फैक्ट्री के कर्मचारियों में चर्चा का विषय बन गया, उसी तरह से काना-फूसी भी होने लग गई कि अण्डा तो बस मुर्गियाँ ही डालती हैं, मुर्गे हरगिज नहीं डालते!  मुर्गा बनने के लिए कहा जाय तो बात ठीक है, लेकिन अण्डा डालने वाली बात तो सरासर मर्दानगी को चुनौती है.  जैसे कि ऐसे में अक्सर होता है- सीधे-सादे कर्मचारियों को यह बात अपमान-जनक लगी और दिल में चुभने लगी.  भला चुभती भी कैसे नहीं, कुल मिला कर इज्जत ही तो उनकी एक-मात्र सम्पत्ति थी.  उनकी मर्दानगी को ललकारने वाली कोई भी बात इज्जत और मर्यादा को आँच पहुँचाने वाली थी. जो कर्मचारी जितना कम अशिक्षित था वह बात को उतनी ही अधिक गम्भीरता से लिए जा रहा था, कहने की बात नहीं कि इनमे से गौरी शंकर  प्रथम पंक्ति मे था.
मुझे अच्छी तरह से याद है- लगभग बीस दिन हो चुके थे और उस दिन बला की ठण्ड थी. साथ में घना कोहरा भी घिर आया था.  मै फैक्ट्री आते समय स्वेटर और कोट के बावजूद ठण्ड से काँपे जा रहा था तथा मफलर को बार-बार ठीक करता आया था.  कुछ देर के बाद हवा चलने लगी तब कोहरा तो छँट गया लेकिन ठण्ड और सूईयाँ चूभोने लगी. मै सोचने लगा था कि आज आधे कर्मचारी भी नहीं अन्दर नहीं जा पाएंगे, लेट होना जैसे एक आवश्यकता हो गई थी!  गेट के अन्दर आया तो मेरा सोचना ठीक निकला- फैक्ट्री का हूटर बज चुका था कर्मचारियों का आना अभी भी जारी था.  विशेष सह्मदयता का परिचय देते हुए मेजर साहब ने दस मिनट तक देरी से आने वालों को कुछ नहीं कहा, किन्तु उनमे गौरी शंकर नहीं था.  उस दिन वह पूरे पैंतीस मिनट की देरी से आया.  मेजर साहब ने देखते ही अपना दण्ड-सूत्र सुनाया- अब अण्डा डालो गौड़ी शंकड़!  गौरी शंकर आदेश को अनसुना करते हुए चुप-चाप खड़ा रहा तो मेजर साहब को उसकी उद्दण्डता पर बहुत आश्चर्य हुआ.  उन्होनें फिर अपना आदेश दुहराया तो अपने पाजामे की लटकती डोरी को सम्हालता- उकड़ू हो कर बैठने जा रहे गौरी शंकर ने आर्त-स्वर मे याचना की- साहेब, हमसे अण्डा मत डलवाईए, हमको अच्छा नहीं लगता है. आप हमको बैल बनने को कह दीजिए, भैंसा चाहे गदहा भी बनने को बोल दीजिए.  चाहे तो आप गोबर डलवा लीजिए, नहीं तो लीद परवा लीजिए साहेब. लेकिन ई अण्डा डालने, मतलब कि मुरगी वाला काम करने को मत कहिए. हम तो मरद हैं, मुरगा बन सकते हैं. लेकिन साहेब, मुर्गा अण्डा कैसे डालेगा?
उसकी गुहार सुन कर मेजर साहब  की हँसी  छूट गई तो बाकी खड़े लोग भी मुस्कुराने लगे.  उन्हें हँसता देख गौरी शंकर सीधा उठ खड़ा हुआ और बोला-
साहेब एक बात कहना है... आपका गोंछ देख कर हमको बहुत अच्छा लगता है, और फैक्ट्री के अन्दर भाग चला.  मैने मुस्कुराते हुए मेजर साहब को बताया कि ऊत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों की ठेठ पूरबी/भोजपुरी भाषा में मूंछको गोंछकहा जाता है.  गौरी शंकर ने मेरी शब्दावली को और समृद्ध कर दिया था.
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बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

हुआ, हुआ- न हुआ सुख



क्या नाम दूं उस सुख को- जो हो कर भी नहीं है. एक ऐसा सुख, जिसका अनुभव तो कर सकते हैं, किन्तु भोग नहीं सकते. उदाहरण के लिए- आप को पता चलता है कि जिस बस से जाने वाले थे उसके सभी यात्रियों को रास्ते में लूट लिया गया, तो आप बच जाने के सुख का मात्र अनुभव कर सकते है- इसमें भोगने जैसी कोई बात नहीं है.  किन्तु, आप गर्मी के दिनों में शिमला की ठन्डी वादियों में- शाम को अकेले चीड़ के पेड़ के नीचे गुमसुम बैठे हैं.  आपके कान मे घुसा कोई कनखजूरा राग विहाग गाने के लिए आलाप लेने जा रहा है, किन्तु आप संज्ञा-विहीन सौ तक की गिनती पूरी करने में तल्लीन हैं.  अचानक कोई कन्या रास्ता भटक कर आती है और आपकी गोद में माथा रख कर रोने लगती है- आप हठात इन्द्रासन का सुख भोगने लग जाते हैं.  इन दोनों प्रकार के सुखों में वही अन्तर है, जो बन रही जलेबी की खुशबू सूंघने भर या उसे दोने मे भर के खाने में है.  खैर, मैं कभी शिमला जाना तो क्या, शहर की देहरी तक नहीं लाँघ पाया हूं सो बस सुख का अनुभव उठाने तक ही रह पाया हूं.  हुआ, हुआ- ना हुआ सुख!
इस प्रकार के सुखों का अनुभव बालावस्था से होता आया है.  बात उस समय की है जब पढ़ाई-लिखाई पर बहुत जोर दिया जाता था. मैने पिताजी को परीक्षा-परिणाम सुनाया- अपनी क्लास में पच्चीसवां नम्बर था. इसके पहले कि पिताजी की हथेली मेरे गालों का स्पर्श करती, मैने चिल्लाकर कह दिया कि आप यह क्यों नही देखते कि मेरे बाद क्लास में छब्बीस बच्चे और थे! मेरा यह कहना था कि पिताजी सुख का अनुभव करते हुए ताश खेलने बैठ गए और मैं मुहल्ले में नई-नई आई स्वर्णलता के साथ छुपा-छुपाई का खेल खेलने लग गया.  इसमें मुझे सुख का अनुभव होता था. उन दिनों मधुबाला लक्स से नहाती है, यह बहुत प्रचारित किया जाता था.  साप्ताहिक हिन्दुस्तान, माधुरी, इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इन्डिया आदि के आखिरी चिकने पन्नों पर नहाया हुआ मुदित मुखड़ा अवश्य देखने को मिलता था.  अस्तु, जब भी मुझे सुख का अनुभव होता, मैं लक्स की टिकिया लेकर नहाने लगता- उस सुख को दुगुना करने के फेर में.  एक दिन नहाते-नहाते सोचा कि सच्ची-मुच्ची इसी लक्स से नहाती है अपनी अनारकली? सो, उसे काट-काट कर खाने लगा.  टिकिया खत्म हो गई तो नहा कर बाहर आ गया.  क्या बयान करूं, टिकिया खाते समय केवल आँखों में आँसू थे, बाकी शरीर का रोम-रोम हर्षित-पुलकित था.  छोटा भाई बचपन से ही बहुत शैतान है, पूछ लिया- भैया नहाया भर है कि साबुन को खाया भी है?  मेरे मुँह से निकला- तुझे कैसे पता चला? मेरा मतलब... तू व्यभिचारी प्रवृति की बातें करने लगा है, दुष्ट!  छोटा भाई उस समय तो चला गया किन्तु कुछ देर के बाद पास आया और बोला- भैया, दाँतों मे साबुन चिपका हुआ है, वह तो हटा देते.  मैने उसे चार आने दिए और चादर ओढ़ कर सो गया. 
मूल विषय से भटक रहा हूं- एक दिन मैं अपने गाँव की  गलियों से जा रहा था कि फिसल कर गन्दे, बदबूदार पानी के जोहड़ मे गिर गया.  इसके पहले कि रोते-रोते मेरी आँख फूट जाती, मेरा सपना टूट गया और मैं सुखी हो गया कि कतई नहीं गिरा था जोहड़ में! यही नहीं, सपनों ने मुझे अनगिनत सुखों से दो-चार करवाया है. बंगाली-बाला स्वर्णलता को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी गीतांजली का मर्म समझाते हुए उसके डैडी ने मुझे कई बार रंगे हाथों पकड़ा है और हाथ छोड़ा है. ऐसे में सपना टूट जाने के बाद परम-सुख की अनुभूति कर चुका हूं.
अब बड़ा होकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर गया हूं, बहुत से भिन्न अनुभवों के साथ. विवाह से पहले जिन कन्याओं से बात चल कर टूट गई, उनमे से आधी से भी ज्यादा ने सुखी किया- नाईनों और धोबिनो से मिले समाचारों  के जरिए. विवाह के उपरांत पत्नी खाना बनाती तो सब्जी मे कभी ज्यादा मिर्च या दाल मे ज्यादा नमक डाल कर रख देती और खाना बना लेने का सुख प्राप्त करने लगती.  मैं एक निवाला खाकर छोड़ देता और बाकी खाना नहीं खाने का सुख उठाने लग जाता. हाँ, अलबत्ता विवाह के बाद लक्स साबुन की टिकिया लेकर मै नहाया कभी नहीं.  कुछेक ऐसे प्रकरणों के बाद तय हुआ कि कम-से-कम रविवार को बाहर भोजन कर लिया जाय, ताकि उसे रोज खाना नहीं बनाने तथा मुझे अखाद्य को नहीं खाने के सुख का अनुभव हो सके. घर से बाहर कहीं घूमने जाना हो तो स्कूटर से हम रास्ते में पड़ने वाले रेलवे-फाटक को पार कर के जाते थे.  कई बार फाटक के बन्द होने पर झुक कर/झुका कर स्कूटर के साथ निकलना होता, तो पत्नी उतर जाया करती थी.  ऐसे मे अक्सर होता कि स्कूटर स्टार्ट करने पर भान होता कि पत्नी बैठ गई है तो तुरत-फुरत पाँचवे गियर में स्कूटर डाल कर मै यह जा और वह जा!  कुछ देर के बाद हठात् आभास होता कि पिछली सीट तो खाली है तो सुख का अनुभव करने लगता.  आठ-दस किलोमीटर ही चला पाता कि लाचारी में यह सोच कर कि पैसे तो पत्नी के पर्स में ही हैं, स्कूटर वापस मोड़ना पड़ता था.
गृहस्थ-जीवन का फल भोगते हुए मेरी कुचेष्टा से पाँच बेटियाँ हुई तो दुखी रहने लगा था.  फिर जब एक बेटा हुआ तो सुख का अनुभव करने लगा.  बेटा सीख-सिखा कर आवारा बन गया तो फिर से दुखी रहने लगा था कि एक दिन सुना कि पड़ोस के सदाचारी जी के यहाँ नौवीं बेटी आ चुकी है तो फिर से सुख का अनुभव होने लगा और लक्स साबुन की टिकिया खाने लगा.  मै अक्सर उनके यहाँ चला जाया करता और मोढ़े पर बैठ कर चाय की चुस्कियों के बीच उन्हें देख-देख कर अपने सुख को बढ़ाता रहता. एक दिन मैने सुझाव दिया- सदाचारी जी, कोई उपक्रम क्यों नहीं करते? कहने का अन्दाज था- नेताजी आप आगे चलो, हम आपके साथ हैं!  अगले दिन मै हकीम बालकिशन जी के दवाखाने से जाकर फँकी की नौ पुड़िया लाया और उन्हें थमा कर बोला- हिम्मते इनसाँ, मददे खुदा! फिर अपने आप से कहा- फँकी फाँक कर यदि सदाचारी के बेटा हुआ तो वह सुखी हो जाएंगे और उल्टा हुआ तो मैं! 
आजकल भोगने की बात क्या, अनुभव करने के लिए भी नहीं मिलता सुख.  कभी-कभार मुहल्ले से किसी की बेटी या पत्नी पलायन कर जाती है तो चार-पाँच दिन का क्षणिक सुख मिल जाता है. आजकल टिकिया बदल दी है, सो लक्स की जगह पियर्स साबुन यूज करने लगता हूं. लक्स वालों की रणनीति बदल गई है- सो मेरी भी.
सुख भोगने से वंचित रहने वालों को मेरा सविनय सुझाव है कि क्षणिक और क्षणभंगुर जीवन में और कुछ नहीं तो सुख का अनुभव तो कर ही सकते है!  दुख का कम हो जाना भी तो एक प्रकार का सुख है, दर्शन की पोथियों-पुस्तकों मे भी लिखा है जब कभी अपनी हालत और हालात से त्रस्त हो जाओ, तो उसे दखो जो तुमसे अधिक त्रस्त है!  तुम्हारी एक टाँग कट जाए तो दुख का अनुभव करने से पहले उसे तो देखो जिसके दोनों पैर नहीं हैं.
समाचार-पत्र में पढ़ने को मिलता है कि छापे में सी.बी.आई को भूतपूर्व मन्त्री के पास अरबों की सम्पत्ति मिली है तो हमें अपने एल.आई.जी. फ्लैट के टूटे-फूटे दो कमरों को देख कर दुःख होता है.  लेकिन जब पता चलता है कि हवालात जा पहुँचे अमुक भैयाजी को अब वहीं से अपनी सभी सम्पत्तियों को नियन्त्रित करना पड़ेगा, तो हम सुन कर सुखी हो जाते हैं.  सत्तारूढ़ पार्टी का शासन छिन जाता है तो पार्टी के सभी नेता दुःखी हो जाते हैं.  लेकिन जब वे देखते हैं कि जनता भी दुःखी है तो सुख का अनुभव करने लगते हैं- ले लो मजा उन्हें वोट देने का!  प्रजातन्त्र ने सुख भोगने के ना सही- उसका अनुभव करने के कई द्वार खोल दिए हैं, बस केवल हमे अपनी आँखें खोलनी हैं.
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मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

कहि न जात- गली का कुत्ता


कहानी 'गली का कुत्ता' दो सहेलियों की आपसी बात-चीत पर आधारित है. इसमें दिखाने की कोशिश की गयी है कि बच्चे कैसे सोचते हैं, उनके मन में कोई स्थाई मैल या बैर नहीं नहीं रहता. साथ ही पल में माशा, अगले पल तोला. जो बात बच्चों को सबसे अधिक सताती है वह है- किसी से भी कमतर होने की बात को स्वीकार लेना.  बंटवारे और दंगो के बीच  दो बच्चों की बात-चीत और किसी से  कमतर न होने की जंग का नज़ारा करिये इस कहानी में.  

अपराध-बोध


खुलासा कर देना आवश्यक है कि और सज्जन होते होंगेकिन्तु मै जन्मजात कवि नहीं था.  बल्कि उल्टे मुझे कविता से डर लगता था (उस कविता से नहींजिसका  जिक्र आगे है).  कविता के रूप में मैने जो पहला गाना ध्यान से सुना थावह था- “मै जट यमला पगला दीवानाइत्ती सी बात न जाना”.  मैं इस गाने को अक्सर गुनगुनाता रहता थाएक दिन मुहल्ले के पँडितजी पैसे उधार लेने पिताजी के पास आए. वह पोथी बाँचने से लेकर मस्तक देख कर भाग्य बताने देने वाले कई कार्य सम्पादित कर लेते थेसो वातावरण को ‘फेवरेबलबनाने चक्कर मे हाथ देख कर भूत-भविष्य बताने का ‘प्रोटोकॉलकरने लगे. उन्होंने इसका श्रीगणेश एक बालक सेयानी मेरा हाथ देख करना चाहा.  मेरे हाथ पर दृष्टिपात करते ही घोषित कर दिया- "यह तो अति होनहार बालक है.  बड़ा होकर एक कवि बनेगाअच्छेलाल दूबेजी!''  घृणा और अपमान बोध से त्रसित होकर मैने तुरन्त अपना हाथ छुड़ा लिया और शौचालय के अंदर जाकर दरवाजे की चिटकिनी लगा कर रोने लगा- “हे दैवक्या मै भी कविता और गीत ही लिखूंगा.. मैं  भीहे पालनकर्ताक्या मुझे भी (स्वीकारोक्ति) में गाना पड़ेगा- मै कालागिट्ठाहकला- इत्ती सी बात...” मुझसे गाया न गयारोने की आवाज को कंठ में दबाते हुए तो कदाचित स्वर्गवासी सर्वश्री रफ़ी मुहम्मद और मुकेश माथुर भी न गा पाते- मैं तो सुर में कभी रोया तक नहीं था.
विधि का विधान! दो साल सात महीने के बाद सड़क के उस पार  मेरे मकान के सामने एक लाला जगमल हाथ मे लोटा लिए हमारे मुहल्ले को लूटने आ गए. पूर्व-प्रायोजित कार्यक्रम के अनुसार उनका परिवार भी छह महीने के बाद आ गया.  औरकविता भी आ गई- जो मुझसे दो बरस छोटी थी. हायक्या नाक-नक्श थे, क्या आँखें थींऔर क्या होंठ (पता नहीं अब कैसे हो गए होंगे यह सब?)  उसे देख कर मेरी उम्र के सभी लड़के उसके दीवाने हो गए- मुझे मिला कर.  सभी लड़कों एवं मुझमे एक अन्तर था. बाकी सभी लड़के बहिर्मुखी थे-  उससे बातें करनाउसके पास जाना चाहते थे.  किन्तु मैं अन्तर्मुखी था- यदि उसे देखना भी होता- तो खिड़की के सामने पीठ करकेहाथ मे शीशा लेकर अपना मुँह देखने के बहाने उसे देखा करता.  और सभी लड़के उसके पिताजी का नाम लेते हुए जगमल मे से शब्द  हटाकर ’ लगा देते थे. किन्तु मै स्पष्टतः  जगमल’ ही कहता. शायद लड़कियाँ मनो वृ (विकृ) त्ति को भाँपने-जानने मे अत्यन्त कुशल होती हैंअतः कविता ने सब समझ-बूझ लिया था. मैं कालागिट्ठा और हकला- उसे भा गया था (यह मैंने कुछ देर से जाना था).  वह मेरी ओर देखती तो एक अदा से आँखें झुका लेती, मुस्कुराती तो ऐसे कि मै रात भर इसी उधेड़-बुन मे पड़ा रहता कि जालिम मुस्कुराई थी भी कि नहीं! 
लाला जगमल के किराने की दूकान पर घरेलू जरूरत का हर सामान मिलता था- आटा-दालतेल-मसाले से लेकर हरी सब्जियां तक. उस दुकान में आते-जाते मैने नोट किया कि कभी कुछ सामान लेने जाता तो अन्दर कमरे से निकल कर कविता आ जाती और अपने पिताजी को किसी न किसी बहाने से उठा कर- मेरा सामान खुद देने लगती. मै मीठी चीजों का शौक़ीन थाअक्सर मिस्री खरीदने जाया करता था. एक दिन ढाई सौ ग्राम मिश्री माँगी तो कविता मेरी आंखों में आंखें डाल कर बोली- "तुमने कभी लहसुन-प्याज नहीं खरीदाक्या खाते नहीं?'' मैने आँखें नीची कर ली और ऊत्तर दिया- "हम लोग ब्राम्हण हैं... यह सब नहीं खाते.  पिताजी कहते हैं कि तामसी चीजें खाने से...'' मेरी बात काटते कविता बोली- "बसबस! अरे मैं तभी कहूं...  आज से ठंडी चीज़ें  खानी बन्द.''  मेरे ना-ना करते रहने पर भी उसने लहसुन-प्याज के साथ बहुत सारे गरम-मसाले भी दे दिए और बोरी थमाते हुए कुछ डाँटती सी बोली- "खाया-पिया करो, मुंह क्या देखते हो? अब जल्दी जाओपैसे फिर आ जाएंगे.''   घर आकर मैने लहसुन-प्याज और गरम-मसाले से भरी बोरी एक ओर रख दी और सोच मे पड़ गया. कविता-रूपि कोहेकाफ की हूर तो राजी थी लेकिन जलिम जिन्न और उसके प्यादों के सामने मेरी क्या औकात थीन मेरे बाजू फौलाद के थेन इरादे चट्टान की तरह!  मुझे लगा कि इरादा तो बहुत दूर की बात हैअभी तो सोच तक पूरी नहीं है. केवल एक झिलमिलाता-टिमटिमाता सपना भर है! जो भी होमुझे लहसुन-प्याज और गरम-मसाले  खाकर ताकत जुटाने की हिम्मत नहीं हुई और ठंडे पानी से नहा कर सो गया.  हॉमैने दूकान पर जाना अवश्य  कम कर दिया.
एक दिन मुझे नमक लेने जाना पड़ गया.  मुझे आया देख कविता जाने कहाँ से आ गई और अपने पिताजी से बोली कि अन्दर घर में बिच्छू दिखा है. लाला जगमल फौरन से पेश्तर  तराजू रख कर तथा-प्रायोजित बिच्छू को ढूंढने अन्दर चले गए और कविता मुझे सामान देने लग गई. घर आकर देखा तो पाया कि गलती से उसने चीनी दे दी है.  मै वापस करने गया तो पाया कि लाला जगमल अन्दर के कमरे में बिच्छू नहीं ढूंढ पाए थेगद्दी पर अभी तक कविता ही बैठी हुई है. मै लिफाफा वापस करते बोला कि नमक की जगह चीनी दे दिया है तो बड़ी सादगी से बोली- मालूम हैलाओ नमक दे देती हूं.” मै नमक लेकर दूकान से चलने लगा तो बोली- अरेनमक को छोड़कुछ चीनी-गुड़ की भी सोच लिया कर. पहले ही तुझमे इतना नमक भर रखा है कि बुरा हाल कर रखा है. और सुन-  अभी मै ही बैठी मिलूंगीअभी घन्टे भर तक अंदर कमरे में पिताजी की ढूंढ-ढाँढ चलेगी.  कोई बिच्छू-विच्छू होगा तभी मिलेगा न- समझा?”  मैं यह बात तो नहीं समझ पायाऔर साथ ही वह बात भी नहीं कि- मेरे बताने से पहले ही उसे कैसे पहले मालूम था कि नमक के बदले चीनी दे दिया गया है!  जब लगभग एक हफ्ते के बाद बातें समझ मे आर्इंतो मै घबरा-शरमा गया. घबराया इसलिए कि कुछ-कुछ ताल ठोकने जैसी बात होने जा रही थीऔर शरमाया इसलिए कि हिम्मत मेरी जगह एक लड़की- वह कविता दिखा रही थी. थोड़ा-बहुत लहसुन-प्याज और गरम-मसाले खा चुका थासो फलस्वरूप अक्सर दूकान पर चला जाया करता और हाथ मे पकड़ा लिफाफा वापस करता बोलता- मैंने धनिया कहा थातुमने जीरा दे दिया है!  कविता मेरी बात सुनकर उसी चिर-परिचित अन्दाज मे मुस्कुरा देती और मै चक्करघिन्नी बन जाता.
अब भाग्य ने अपना पाँसा फेंका और मै झाँसा खा गया (कवि बनने की ओर अग्रसर, भाग्य-लेखानुसार). उस दिन टी.वी. पर रुखसाना सुल्तान को समाचार पढ़ते देखउसका मुकाबला अपनी कविता से करने लगा. कवि-मन ने यही कहा- ऐ रुखसानायदि तुम समचार की पँक्तियाँ हो तो मेरी कविता एक महाकाव्य है!  शाम होते-होते भाग्य और प्रबल हो गया और फलस्वरूप मै कुछ-कुछ कवियाने लगा.  मूंछ के साथ पूंछलोटा के साथ सोटा और जूता के साथ कुत्ता जैसे काफिए बनाने के बाद पहली छोटी कविता बनी- 'तू राजकुमारी हैमुझे इज्जत प्यारी है.' बहुत आनन्द आया- इसमे कविता के साथ यथार्थ भी थाइसलिए.
होली वाले दिन जो कविता ने जो कुछ किया, उसे शब्दों में ढालने की बेकार सी कोशिश ऐसे है- उन दिनों होली की हुडदंग बहुत आफत ढाने वाली होती थी. मेरे जैसे डरने वाले कुछ लोग (मेरी उम्र के लड़के नहीं) घर से बाहर निकलने से घबराते थे. मै तो बाकायदा अंदर से कुंडी लगाकर रेडियो सुन रहा था. दरवाजे पर थाप सुनी तो खोला और पाया कि मुंह पर मुखौटा पहने पहने कोई खड़ा है. इसके पहले कि पूछूं, आवाज आयी- अरे, आज भी नखरे दिखायेगा कि अंदर आने को रास्ता देगा.कविता ने यह बात कही भर थी, उत्तर सुनने के लिए प्रश्न नहीं किया था. अंदर आकार उसने सिटकिनी बंद कर मुझे एक थैला दिया और बोली-  ले, जल्दी से पहन ले जाकर बाथरूम में.मुझे जैसे किसी पाश में बाँध लिया था किसी ने, मै कुछ बोले बगैर बाथरूम में गया और थैले में से  सामान निकाला. साड़ी, ब्लाऊज, चूड़ी और टीका आदि देखकर मुझे हंसी आ गई, कविता ने अपने पहनने का सामान मुझे थमा दिया था. मै मुस्कुराता कविता के पास आया तो उसे देख सन्न रह गया! उसने टूटा-फूटा ही सही- कृष्ण का रूप धारण कर लिया था.  बालों में ऊपर फंसे मोर-पंख, कानों में मोटे कुंडल और हाथ में थामी  छोटी सी बांसुरी ही काफी थी, कविता ने अपने दूध-सिन्दूर के बदन पर जहां-तहां राख मलने का भी उपक्रम कर डाला था. मेरे मन में कितनी बिजलियां कड़कीं, कितने बायलर दहके, यही सब तो ठीक से नहीं लिख पाने की बात पहले ही कर चुका हूं.  मैने उसके दिए राधा के कपड़े नहीं पहने तो क्या, कृष्ण-रूपि कविता को सामने देख मै इतना अधिक शरमा गया जितना असली राधा भी नहीं शरमाती.  मुझे लकड़ी की तरह निश्चल खड़ा पाकर बोल उठी- कपड़े तो तूने राधा के पहने नहीं, फिर शरमा क्यों रहा है उसकी तरह?  मैंने किशन का भेस धर तो लिया है, हरकत भी करनी पड़ेगी अब, बोल?” मै क्या बोलता (राधा क्या बोलती?), उसने होली रे आज बिरज मेंकहते हुए मुझे अपनी बाहों में भर लिया और मेरे मुंह पर लगी धूल-मिट्टी और सारी गंदगी साफ़ कर दी. बोली, “मजा तो नहीं आया, लेकिन इससे आगे मेरे वश में नहीं. तू सोचियो कुछ... राधे राधे.कह कर मेरे कुछ कहने से पहले ही बाहर निकल गई.   
 मेरे जीवन मे होने वाली दुर्घटनाओं मे से- विधाता ने जो जबसे घातक लिखी थीवह घटित हो गई. थाने मे एक नया थानेदार आया था- आजम खाँ.  असली पठान था- गोरा-चिट्टालम्बा-रोबीला!  वह न तो एक पैसे की रिश्वत लेता थान ही अपराधियों से किसी किस्म की मुरौव्वत करता था.   जहिर हैउसके घर का सारा राशन-पानी लाला जगमल की दूकान से ही आता था. एक दिन आजम खाँ के घर बासमति चावल भेजना था. बिजली न होने कारण लालाजी ने गलती से- चावल की बोरी में मिलाने के लिए बगल में रखे हुए कंकड़ को ही पाँच किलो तौल कर भेज दिया. थानेदार आजम खाँ को कंकड़ों का पुलाव खाने का आइडिया पसन्द नहीं आयाउसने सदल-बल दूकान पर दबिश डाल दी. लाला जगमल मिलावट करने के जुर्म मे हवालात चले गए.  दो दिन के बाद जमानत पर छूटे तो अपना वही पुराना लोटा उठाकर परिवार सहित कहीं और प्रस्थान कर गए- मेरी कविता की कलाई पकड़े!
भाग्य अपना चक्र पूरा कर चुका था- विश्राम लेते हुए मुझे पूर्ण-कालिक कवि बना डाला. अब कविता की जुदाई एक तरफ और जमाने की खुदाई दूसरी ओर.  मेरा रो-रोकर बुरा हाल हो गया.  मुँह से जो भी निकलतातुकबन्दियों के रूप मे. जब मुँह बन्द होता तो मै अन्य आचरणों मे लग जाया करता. कभी टूथपेस्ट निकाल कर बड़े मनोयोग से चेहरे पर हल्की मालिश करने लगता अथवा कभी आयोडेक्स या बरनोल लगा कर ब्रश करने लग जाता. मुझे इस कलाप का पता भी नहीं चलताअगर स्टॉक समाप्त नहीं हो जाता. मै केमिस्ट की दूकान पर गया और बोला कि टूथ-पेस्ट दे दो. उसने कोलगेट की ट्यूब थमाई तो मै नाराज हो गया और झिड़क कर बोला- कमाल के दूकानदार हो!  मैने चेहरे पर लगाने वाली क्रीम नहीं माँगी थीयह क्या हैउसका खुला मुंह जब बहुत देर तक बन्द नहीं हुआ तो मैने उसके पागलपन पर माथा पीटते हुए उस पीली-पीली सी चीज के बारे मे बताया.  अब उसके माथा पीटने का टर्न आ गया थाबोला-  बाबूजीवह मलहम तो जले-कटे पर लगाया जाता है. वैसेपैसा भी आपका और मुँह भी आपही का हैचाहे इसे खाइए या लगाइए- मेरा क्यामेरे जैसे दूकानदार के लिए तो ग्राहक भगवान के समान है. मैने तो दूकान के साइनबोर्ड पर भी लिखवा रखा है-  कस्टमर इज आलवेज राईट!  हाँलगे हाथों एक बम्पर ऑफर’ जरूर दे सकता हूँ- क्योंकि  आपके केस में एक्सपायरी डेट’ लागू नहीं होती है. आप तो जानते ही हैं कि आजकल बड़ी जगह आसानी से किराए पर नहीं मिलती. मेरा पीछे का गोदाम भरा पड़ा हैआपको अस्सी परसेन्ट तक डिस्काउन्ट दे दूंगा. मेरे गोदाम मे बहुत सारा माल मिल जाएगा-  आयोडेक्स,  बरनॉलसेवलॉन, फिनायल लिक्विड और गोलियाँ आदि.”  मैं सपकाया-सा उसका खिला चेहरा देखने लगा तो उसने तपाक से निकाल कर अपना विजिटिंग कार्ड मुझे थमा दिया, बोला रखिये बाबूजी, आप जैसा कस्टमर तो आजकल ढूँढे से भी न मिले.  आपका रात के बारह बजे भी स्वागत है.
घर आकर मैने शीशे मे अपनी छवि निहारी. एक ओर की कलम गरदन के नीचे तक पहुँची  हुईदूसरे तरफ की थी ही नहीं!  मूंछ का आधा हिस्सा फिल्मस्टार प्रदीप कुमार स्टाइल मे थाआधा राजकपूर कट मे! शेव करते समय शायद्  कुछ दिनों से मैने शीशा देखना छोड़ दिया था- फलस्वरूप ठुड्डी से नीचे गदरन का पूरा हिस्सा बालों से ढका हुआ था.  पूरी बाँह की शर्ट की बार्इं बाजू के बटन बन्द थेदार्इं ओर वाली मोड़ कर ऊपर तक चढ़े हुए. चेहरे पर कहीं-कहीं सफेद सी परत चढ़ी दिख रही थीजो टूथ-पेस्ट सूख जाने के कारण हुआ था.  मुँह के अन्दर की दन्त-पँक्ति कहीं नीली तो कहीं पीली दिख रही थीजो आयोडेक्स और बरनॉल के सदुपयोग का कु-फल था.  शायद आस-पड़ोस के लोगों ने मुझे ला-ईलाज समझ कर कभी रोका-टोका नहींन ही कुछ बताया.
इसके बाद का कितना समय और कैसे बीतान मुझे याद है- न घर वालों ने बताया.  पूछने पर एक ही वाक्य कह कर बात समाप्त कर देते थे कि बसयही समझ लो कि तुम्हें कोई बोध नहीं होता था! 
बोध तो मुझे उस समय भी नहीं हुआ था जब पता चला था कि मेरी पत्नी की सौतेली माँ ने मेरा कवि होना जान कर ही उससे विवाह करवा दिया था. वर देखा-देखी के समय मेरी माँ ने अनमने मन से उन सुनहरे दिनों में पाँच हजार मांग लिया था तो विमाताश्री ने साढ़े सात हजार दिलवा दिए थे!  यह दीगर बात है कि इस (कु) कृत्य पर विमाताश्री (मेरी सासू माँ) की चहूं-दिस जय-जय होने लगी कि सौतेली माँ हो तो ऐसी! सगी से भी बढ़ कर!!  कहने की बात नहीं कि पाँच की जगह साढ़े सात देने/दिलवाने वाली सासूमाँ में दूरदर्शिता थी हीसो उन्होंने हवा का का रूख पहचानने मे देर नहीं की और पँचायत का चुनाव लड़ने घोषणा कर दी.  आगे क्या हुआबताने से क्या फायदा- अगर आपने अनुमान लगा लिया है तो!  किन्तु यह अभी बता दूं कि अन्तिम साँस लेते समय भी- एक महिला के रूप में एक सरपँच ने प्राण त्यागे थे!
सासूमाँ की जीत का जश्न होना थामुझे भी सपत्नीक आने का न्यौता मिला. जश्न की रात में सासूमाँ तनिक अदूरदर्शी हो चलीं और हमेशा बन्द रहने वाली आलमारी खुली छोड़ दी.   अपनी नारी-सुलभ उत्कंठा का परिचय देते हुए श्रीमतिजी ने आलमारी में रखी डायरी देखी और पन्ना-दर-पन्ना चाट गर्इं. मैं गाढ़ी नींद में सोया सपने में दही-बड़े के तालाब मे तैर रहा था कि श्रीमतिजी ने आकर डायरी मेरे मुँह पर मार दी. नींद खुली तो श्रीमतिजी जलती आँखों से मुझे देखती बोलीं- जाना तो आपके साथ भी नहीं चाहती लेकिन यहाँ तो एक पल भी ठहरना गवारा नहीं. उठिएअभी-का-अभी चल दीजिए.” वह अपना सामान इकट्ठा करने लगीं तो किसी 'स्कैम' की आशंका से मैं सासूमाँ की डायरी पढ़ने लगा. लिखा था-
आज मुझे अपने फैसले पर खुशी हो रही है.  पँचायत के चुनाव में ऐसी सफलता मिलेगीमैने सोचा भी नहीं था.  न मैने पिताजी की पसन्द उस कवि से विवाह का विरोध किया होता और न उसके स्थान पर बूढ़े विदुर से विवाह कर इस घर मे आना लाख दर्जे अच्छा समझा होता. फिर कवि से विवाह करके क्या हाल होता है- यह देखने के लिए न मैने बिट्टो की शादी एक कवि से करवाई होती और और न ही उसके लिए लिए एक की जगह डेढ़ खर्च किया होता.  तो कैसे मिलती इतनी जय-जयकार और कहाँ होता सपना पूरा... 
मैने धीरे से डायरी को बिस्तर पर रख दी और सासूमाँ को एक बार अदूरदर्शी समझ लेने की भूल के लिए मन-ही-मन क्षमा माँगी.
घर पर आते ही श्रीमतिजी औंधे मुँह बिस्तर पर गिर गई और रोने लगीं- मुझे आज पता चल गया कि किस मीठी छुरी से मेरी माँ ने मेरा गला रेता है! अब आजीवन आपके साथ रहना पड़ेगा और एक से बढ़ कर एक अत्याचार... आगे के शब्द उसने सुनाना नहीं चाहा या मैने अनसुना कर दिया- यह मुद्दा नहीं.  जो भी होउस दिन के बाद मेरी पत्नी ने मायके जाना बन्द कर दिया.  उधर जब मेरी सासूमाँ को पता चल गया कि भेद-भेद ना रहा तो हर त्यौहार पर एक के बदले दो-दो ग्रीटिंग-कार्ड भेजने लगीं.  विवाह की बर्ष-गाँठ पर सुखी एवं मँगलमय विवाहित जीवन की शुभकामना” वाला बहुत शानदार कार्ड भिजवाया जाने लगा.
इधर कई दिनों से सासूमाँ फोन किए जा रही थीं अपनी बेटी का कुशल-क्षेम पूछने के लिए.  विवाह की दूसरी वर्ष-गाँठ पर बधाई का कार्ड मिलने के तीसरे दिन फोन आया थातो मैने ही उठाया था. मेरी आवाज सुनते ही माताश्री ने कहा कि मुझे तुम्हारा हाल-चाल पूछ कर क्या करनाबेटी से बात कराओ.  श्रीमतिजी से कहा तो उन्होंने बालाजी के दरबार मे पेश किसी मुल्जिम’ की भाँति झूमते-लहराते हुए रिसीवर थामा.  कुछ ही देर की बात-चीत में मुँह से झाग निकलने लगा और अस्फुट शब्द तार के इस पार ही रह गएउस पार जा कर सासूमाँ तक नहीं पहुँचे.
श्रीमतिजी के उद्दम और प्रयास से कम्यूनिकेशनके सभी दरवाजे एक-एक करके बन्द हो चुके हैं. पहले डाक और कुरियर वालों को मना किया ही जा चुका था आज घर का आखिरी फोन कटवा दिया है.  कभी काम ना आ सके, इस सोच के मारे पटक कर तोड़ा गया टेलीफोन, रिसीवर और तार- सभी फर्श पर टूट कर बिखरे पड़े हैं. आज कम्यूनिकेशन का अन्तिम सोर्स भी जाता रहा.  यही सोचे जा रहा हूं कि मेरे कद्रदानों (यदि हैं) पर क्या बीतेगी? कैसे न्योतेंगे मुझे, कैसे सम्वाद होगा?

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