क्या नाम दूं उस सुख
को- जो हो कर भी नहीं है. एक ऐसा सुख, जिसका अनुभव
तो कर सकते हैं, किन्तु भोग
नहीं सकते. उदाहरण के लिए- आप को पता चलता है कि जिस बस से जाने वाले थे उसके सभी
यात्रियों को रास्ते में लूट लिया गया, तो आप बच जाने के सुख का मात्र अनुभव
कर सकते है- इसमें भोगने जैसी कोई बात नहीं है.
किन्तु, आप गर्मी के
दिनों में शिमला की ठन्डी वादियों में- शाम को अकेले चीड़ के पेड़ के नीचे गुमसुम
बैठे हैं. आपके कान मे घुसा कोई कनखजूरा राग विहाग गाने के लिए आलाप लेने जा
रहा है, किन्तु आप
संज्ञा-विहीन सौ तक की गिनती पूरी करने में तल्लीन हैं. अचानक कोई कन्या रास्ता भटक कर आती है और आपकी गोद में माथा रख कर रोने
लगती है- आप हठात इन्द्रासन का सुख भोगने लग जाते हैं. इन दोनों प्रकार के
सुखों में वही अन्तर है, जो बन रही जलेबी की खुशबू सूंघने भर या
उसे दोने मे भर के खाने में है. खैर, मैं कभी शिमला जाना
तो क्या, शहर की देहरी
तक नहीं लाँघ पाया हूं सो बस सुख का अनुभव उठाने तक ही रह पाया हूं. हुआ, हुआ- ना हुआ सुख!
इस प्रकार के सुखों
का अनुभव बालावस्था से होता आया है. बात उस समय की है जब
पढ़ाई-लिखाई पर बहुत जोर दिया जाता था. मैने पिताजी को परीक्षा-परिणाम सुनाया-
अपनी क्लास में पच्चीसवां नम्बर था. इसके पहले कि पिताजी की हथेली मेरे गालों का
स्पर्श करती, मैने चिल्लाकर कह दिया कि आप यह क्यों
नही देखते कि मेरे बाद क्लास में छब्बीस बच्चे और थे! मेरा यह कहना था कि पिताजी
सुख का अनुभव करते हुए ताश खेलने बैठ गए और मैं मुहल्ले में नई-नई आई स्वर्णलता के
साथ छुपा-छुपाई का खेल खेलने लग गया. इसमें मुझे सुख का अनुभव होता था. उन
दिनों मधुबाला लक्स से नहाती है, यह बहुत प्रचारित किया जाता था. साप्ताहिक हिन्दुस्तान, माधुरी, इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ
इन्डिया आदि के आखिरी चिकने पन्नों पर नहाया हुआ मुदित मुखड़ा अवश्य देखने को
मिलता था.
अस्तु, जब भी मुझे सुख का अनुभव होता, मैं लक्स की
टिकिया लेकर नहाने लगता- उस सुख को दुगुना करने के फेर में. एक दिन
नहाते-नहाते सोचा कि सच्ची-मुच्ची इसी लक्स से नहाती है अपनी अनारकली? सो, उसे काट-काट
कर खाने लगा.
टिकिया खत्म हो गई तो नहा कर बाहर आ गया. क्या बयान करूं, टिकिया खाते समय केवल आँखों में आँसू
थे, बाकी शरीर का
रोम-रोम हर्षित-पुलकित था.
छोटा भाई बचपन से ही बहुत शैतान है, पूछ लिया-
“भैया नहाया भर है कि साबुन को खाया भी है?” मेरे मुँह से निकला- “तुझे
कैसे पता चला? मेरा मतलब... तू व्यभिचारी प्रवृति की
बातें करने लगा है, दुष्ट!” छोटा भाई उस समय तो चला गया किन्तु कुछ देर के बाद पास आया और बोला- “भैया, दाँतों मे साबुन चिपका हुआ है, वह तो हटा
देते.” मैने उसे चार
आने दिए और चादर ओढ़ कर सो गया.
मूल विषय से भटक रहा
हूं- एक दिन मैं अपने गाँव की गलियों से जा रहा था कि फिसल कर
गन्दे, बदबूदार पानी
के जोहड़ मे गिर गया.
इसके पहले कि रोते-रोते मेरी आँख फूट जाती, मेरा सपना
टूट गया और मैं सुखी हो गया कि कतई नहीं गिरा था जोहड़ में! यही नहीं, सपनों ने
मुझे अनगिनत सुखों से दो-चार करवाया है. बंगाली-बाला स्वर्णलता को गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी गीतांजली का मर्म समझाते हुए उसके डैडी ने मुझे कई बार
रंगे हाथों पकड़ा है और हाथ छोड़ा है. ऐसे में सपना टूट जाने के बाद परम-सुख की
अनुभूति कर चुका हूं.
अब बड़ा होकर
गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर गया हूं, बहुत से भिन्न अनुभवों के साथ. विवाह
से पहले जिन कन्याओं से बात चल कर टूट गई, उनमे से आधी से भी
ज्यादा ने सुखी किया- नाईनों और धोबिनो से मिले समाचारों के जरिए. विवाह के
उपरांत पत्नी खाना बनाती तो सब्जी मे कभी ज्यादा मिर्च या दाल मे ज्यादा नमक डाल
कर रख देती और खाना बना लेने का सुख प्राप्त करने लगती. मैं एक निवाला खाकर छोड़ देता और बाकी खाना नहीं खाने का सुख उठाने लग
जाता. हाँ, अलबत्ता विवाह के बाद लक्स साबुन की
टिकिया लेकर मै नहाया कभी नहीं. कुछेक ऐसे प्रकरणों के बाद तय हुआ कि
कम-से-कम रविवार को बाहर भोजन कर लिया जाय, ताकि उसे रोज खाना
नहीं बनाने तथा मुझे अखाद्य को नहीं खाने के सुख का अनुभव हो सके. घर से बाहर कहीं
घूमने जाना हो तो स्कूटर से हम रास्ते में पड़ने वाले रेलवे-फाटक को पार कर के
जाते थे.
कई बार फाटक के बन्द होने पर झुक कर/झुका कर स्कूटर के साथ निकलना
होता, तो पत्नी उतर
जाया करती थी.
ऐसे मे अक्सर होता कि स्कूटर स्टार्ट करने पर भान होता कि पत्नी बैठ
गई है तो तुरत-फुरत पाँचवे गियर में स्कूटर डाल कर मै यह जा और वह जा!
कुछ देर के बाद हठात् आभास होता कि पिछली सीट तो खाली है तो सुख का
अनुभव करने लगता. आठ-दस किलोमीटर ही चला पाता कि
लाचारी में यह सोच कर कि पैसे तो पत्नी के पर्स में ही हैं, स्कूटर वापस
मोड़ना पड़ता था.
गृहस्थ-जीवन का फल
भोगते हुए मेरी कुचेष्टा से पाँच बेटियाँ हुई तो दुखी रहने लगा था. फिर जब एक बेटा हुआ तो सुख का अनुभव करने लगा. बेटा सीख-सिखा कर आवारा बन गया तो फिर से दुखी रहने लगा था कि एक दिन सुना
कि पड़ोस के सदाचारी जी के यहाँ नौवीं बेटी आ चुकी है तो फिर से सुख का अनुभव होने
लगा और लक्स साबुन की टिकिया खाने लगा. मै अक्सर उनके
यहाँ चला जाया करता और मोढ़े पर बैठ कर चाय की चुस्कियों के बीच उन्हें देख-देख कर
अपने सुख को बढ़ाता रहता. एक दिन मैने सुझाव दिया- सदाचारी जी, कोई उपक्रम
क्यों नहीं करते? कहने का अन्दाज था- नेताजी आप आगे चलो, हम आपके साथ
हैं!
अगले दिन मै हकीम बालकिशन जी के दवाखाने से जाकर फँकी की नौ पुड़िया
लाया और उन्हें थमा कर बोला- हिम्मते इनसाँ, मददे खुदा! फिर अपने
आप से कहा- फँकी फाँक कर यदि सदाचारी के बेटा हुआ तो वह सुखी हो जाएंगे और उल्टा
हुआ तो मैं!
आजकल भोगने की बात
क्या, अनुभव करने
के लिए भी नहीं मिलता सुख.
कभी-कभार मुहल्ले से किसी की बेटी या पत्नी पलायन कर जाती है तो
चार-पाँच दिन का क्षणिक सुख मिल जाता है. आजकल टिकिया बदल दी है, सो लक्स की
जगह ‘पियर्स’ साबुन यूज करने लगता हूं. लक्स वालों की रणनीति बदल गई है- सो मेरी भी.
सुख भोगने से वंचित
रहने वालों को मेरा सविनय सुझाव है कि क्षणिक और क्षणभंगुर जीवन में और कुछ नहीं
तो सुख का अनुभव तो कर ही सकते है! दुख का कम हो जाना भी तो
एक प्रकार का सुख है, दर्शन की पोथियों-पुस्तकों मे भी लिखा
है जब कभी अपनी हालत और हालात से त्रस्त हो जाओ, तो उसे दखो जो तुमसे
अधिक त्रस्त है! तुम्हारी एक टाँग कट जाए तो दुख का अनुभव करने से पहले उसे
तो देखो जिसके दोनों पैर नहीं हैं.
समाचार-पत्र में
पढ़ने को मिलता है कि छापे में सी.बी.आई को भूतपूर्व मन्त्री के पास अरबों की
सम्पत्ति मिली है तो हमें अपने एल.आई.जी. फ्लैट के टूटे-फूटे दो कमरों को देख कर
दुःख होता है.
लेकिन जब पता चलता है कि हवालात जा पहुँचे अमुक भैयाजी को अब वहीं
से अपनी सभी सम्पत्तियों को नियन्त्रित करना पड़ेगा, तो हम सुन कर
सुखी हो जाते हैं.
सत्तारूढ़ पार्टी का शासन छिन जाता है तो पार्टी के सभी नेता दुःखी
हो जाते हैं. लेकिन जब वे देखते हैं कि जनता भी दुःखी
है तो सुख का अनुभव करने लगते हैं- ले लो मजा उन्हें वोट देने का!
प्रजातन्त्र ने सुख भोगने के ना सही- उसका अनुभव करने के कई द्वार खोल दिए
हैं, बस केवल हमे
अपनी आँखें खोलनी हैं.
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