गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

मेगा मेमोरी और रामलुभावन


उस दिन मेरा मन बहुत उदास था. हाँलाकि मेरा मित्र राजेश एक जानी-मानी एयरलाईन कम्पनी में डिप्टी मार्केटिंग ऑफिसर बन गया था और मुझे पत्नी के साथ गोवा आने-जाने का हवाई टिकट गिफ्ट में देने के लिए कई बार फोन कर चुका था पर उदासी ज्यों कि त्यों बनी-ठनी रही. राजेश का क्या है- सेल प्रोमोशन की खातिर उसे मिले अन्य अधिकारों में यह 'ऑफर' वाली बात भी शामिल रही होगी, अन्यथा वह मुझे अपनी ज़ेब से गोवा तो क्या- करोलबाग से कड़कड़डूमा तक भेजने की स्थिति मे नहीं था. जब उसने मुझसे फोन पर पूछा था कि मेरी मैरेज एनिवर्सरी कब है, क्योंकि वह गिफ्ट के रूप मे गोवा का सपत्नीक रिटर्न एयर-टिकट देना चाहता है- तो सुन कर मेरी बोलती बन्द हो गई.  इसके कारण दो थे.  एक तो यह पहले से ही गृहस्थ जीवन में लगातार थर्ड-डिग्री झेल रहे मुझ जैसे लाचार आदमी को सबकी नजरों से ओझल करने का प्रोपोजल था- जहाँ उसकी चीख-पुकार तक सुनने वाला कोई न हो. दूसरा- बुरे क्षणों को भूल जाने में भलाई की तर्ज पर- मैं अपने विवाह की तिथि आदि सब भुला  चुका कर कुछ हद तक सुकून से जी रहा था.  मैं राजेश से भला अब कौन सी तारीख बताता?   उसका प्रपोजल सुनकर चोर-दरवाजे से एक विचार अवश्य मन में उपजा कि यह एक हवाई-सफर का ऑफर है, कोई भी तारीख बता कर टिकट ले लूं.  लेकिन, पहले वाले कारण ने इसमें फँसड़ी मार दी, मै किसी अनजाने स्थान पर जाने के विचार-मात्र से आतंकित हो गया (जहाँ बीच-बचाव या दखल देने वाला कोई न हो) और फोन का रिसीवर रख कर हथेली का पसीना पोंछने लग गया.
उदास मन लिए ही घर आया और जैसे ही टी.वी. ऑन किया, कोई विज्ञापन चलता दिखा.  एक अंग्रेज साहब के होंठ किसी अलग अन्दाज में हिलते परन्तु-  शब्द कुछ और ही सुनाई देने की बात पर मै चकित रह गया.  उदाहरण के लिए- यदि उनके होंठ मोजाम्बिक शब्द का उच्चारण करते लग रह रहे थे, तो कानों से  ‘लुधियानासुना जा रहा था.  आज तक तो मैंने यही मुहावरा सुना था कि- लुकिंग लन्दन, गोर्इंग टोकियो.”  परन्तु, 'बोले- बबुआ, सुने- चुड़ैल  जैसी किसी बात या मुहावरे से सर्वथा अनजान था.  उन साहबजी के हिल रहे होठों और कानों को सुनाई दे रहे शब्दों में कोई ताल-मेल बिठाना संभव नहीं था.  सुनायी दे रही बातें अच्छी लगीं तो मै तनिक और रुचि लेकर सुनने लगा. दिलचस्पी से सुने जाने वाले शब्द मर्मस्पर्शी से लगने लगे-
... प्रोफेसर स्लो मोशन द्वारा लेबोरेटरी में की गई वर्षो की मेहनत और रिसर्च का नतीज़ा है हमारा प्रॉडक्ट मेगा-मेमोरी ... यह आपके जीने का तरीका बदल देगा, एकदम सच! आप जान भी नहीं पाएंगे कि आपकी थकी-पिटी दुनिया कब और कैसे एक सुहाने सफर में तब्दील हो गई है. बच्चे-बूढ़े, औरत-मर्द या मोटे-पतले सभी पर एक जैसा असर करता है, बिलकुल सच! क्या कहा, आपको यकीन नहीं हो रहा?... हम जानते थे इसलिए हमने स्टूडियो में मिसेज बाल्टीवाला को ...''
देखते ही देखते टी.वी. पर एक मेम होंठ हिलाने लगी- मेरी मेमोरी बहुत खराब थी, मेरी सभी सहेलियाँ मेरा मज़ाक उड़ाती थीं... हा हा हा ...   मेरे पति आठ-आठ दिन घर पर नहीं आते थे, किन्तु मुझे याद ही नहीं आता था कि मेरी शादी को तेरह साल हो चुके हैं... हॉ हॉ हॉ!  लेकिन, जबसे मैने मेगा-मेमोरीका इस्तेमाल शुरू किया तबसे मेरी दुनिया ही बदल गई है.  प्रफेसर स्लोमोशन का अविष्कार हैरान कर देने वाला है.  बाय गॉड, अब मुझे अपना, अपने पति का  नाम-पता से लेकर- उसे किस-किस के फोन आते हैं, सब कुछ याद रहता है. क्यों, है न मज़ेदार? हा हा हा!  इस क्रीम के इस्तेमाल से अनचाहे बाल ...
अचानक कैमरा घूम कर पहले वाले साहब पर चला गया- ओह... यह लाईन इस प्रोड्क्ट की नहीं थी, आप बहुत मजाकिया हो गयी हैं...  नेवर माईंड. थैन्क यू रूबीना. सुना आपने दोस्तों? जी हाँ, हमारा प्रॉडक्ट है ही बेमिसाल! यह लेबोरेटरी में टेस्ट किया गया और एक सर्टिफाइड प्रोड्क्ट है. अगर आप पन्द्रह दिनों के भीतर इसके रिजल्ट से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, तो आप यकीन कीजिए कि आप का पूरा पैसा वापस कर दिया जाएगा.  हम आपको पैसे वापस करने की गारंटी देते हैं... फिर देर किस बात की? उठाइए फोन और स्क्रीन पर लिखे बाईस नम्बरों मे से कोई एक...''
मैंने आवाज़ को बंद कर दिया और सोचने लगा कि यूरोपियनों का इसी बात मे तो सानी नहीं, डंके की चोट पर बिजनेस करना जानते हैं!  दावा कर रहे हैं कि पैसे वापस कर देंगे!  अजी साहब, अगर इस मेगा-मेमोरीने अपना असर नहीं  किया तब किसी असन्तुष्ट ग्राहक को कोई बात ही कहाँ याद रहेगी कि वह पैसे वापस माँगेगा! अचानक मुझे अपने नौकर रामलुभावन की याद आ गई.  बहुत दिनों से उसकी भूल जाने वाली बीमारी मुझे नचाए जा रही थी. किसी रविवार के दिन मैं उससे कहता कि पड़ोस मे रहने वाले गुप्ताजी को रम्मी खेलने के लिए बुला दे, तो वह रसोई में जाकर श्रीमतिजी से कह आता कि बाबूजी के पेट मे दर्द है, आज कुछ नहीं खाएंगे. रात को डिनर नदारद पाकर- उससे सफाई माँगे जाने पर अपने पेट पर हाथ फिराता हुआ कह देता कि उसके पेट में दर्द है, उसे कहा-सुना कुछ भी याद नहीं!  इसी तरह यदि मैं कभी कहता कि एडवोकेट मिश्राजी को आज लन्च पर आने का इन्विटेशन दे दे तो वह जाकर सेशन-जज गोयल साहब से कह आता कि हमारे बाबूजी आज रात का डिनर आपके घर करेंगे. फलस्वरूप, इधर मैं दिन के साढ़े-तीन बजे तक एडवोकेट साहब के अपने घर पर आने की प्रतीक्षा करता रहता तो उधर, बिचारे थके-मांदे जज साहब रात के साढ़े-बारह बजे तक मेरी बाट जोहते-जोहते अपने डिनर-टेबल पर भूखे ही सो जाते. हमारे घर की दिनचर्या में सेंध लग गई थी. मानसिक स्वास्थ्य-लाभ को ध्यान में रख कर एक-दो बार उसे छुट्टी करके घर जाने के लिए उत्साहित करना चाहा तो उत्तर मिला- हमें अपने देस-गाँव अऊर महतारी-बाप का कवनो ईयाद नाहीं. मालिक, हम जार्इं त जार्इं कहाँ? फिलहाल- मैं इतना दुखी था कि रिस्कउठाने को तत्पर हो गया और एक जुआरी की सी मानसिकता बनाते हुए  ‘मेगा-मेमोरी का ऑर्डर दे दिया (असर न होने पर पैसे की वापसी के लिए मेरी मेमोरी काम आ ही जाती). 
ऑर्डर देने के चौथे दिन ही कुरियर से डिलीवरी मिल गयी तो एडवांस में भेजे गए 3,990/- रुपयों के लिए सोच में पड़ा डाँवाडोल मन आश्वस्त हुआ. खुशी भी हुई कि डिलीवरी जब इतनी फास्ट है तो असर भी कुछ-न-कुछ ठीक ही होना चाहिए.  मैने उसी समय रामलुभावन को बुलाया और बताए गए निर्देश के अनुसार दिन में दो बार एक-एक कैप्सूल खाने के लिए समझा दिया.  एक सप्ताह बीतने के बाद मैने ध्यान दिया तो पाया कि दवाई का असर उल्टा ही हो रहा है- राम लुभावन और कष्ट-दायी हो चला है!  कभी पानी का गिलास मुझे देने की बजाय उसे टी.वी.पर रख कर कार्टून चैनल देखने लगता अथवा अखबार माँगने पर कार की धुलाई करने चल देता है.  मैने उसे बुलाकर पूछा कि अब तक कितने कैपसूल खाए हैं, तो उत्तर देने के स्थान पर मुँह फाड़ कर दाएं-बाएं देखने लगा.  कुछ और कहना-पूछना मुझे मुनासिब नहीं लगा और जाकर उसके कमरे की तलाशी लेने लगा.  मैंने पाया कि कि कैप्सूल की शीशी को उसने अपने बैग में रखी हुई धोती के सिरे में गाँठ लगा कर रख दिया है.  ढक्कन खोलने पर शीशी ज्यों की त्यों भरी मिली. मन में आये गुस्से का स्थान सहानुभूति ने लिया,  रामलुभावन  बिचारा- मेमोरी का मारा जो था.  अपने भारी निवेश और गम्भीर स्थिति को देखते हुए मैंने कैपसूलों को अपने सामने खिलाने का निश्चय कर लिया.
प्रो. स्लोमोशन का प्रॉडक्ट इतना फास्टमोशनहो सकता है, यह मेरी कल्पना से बाहर की बात निकली.  तीसरे-चौथे दिन के बाद से वह ठीक-ठाक पानी और अखबार देने लगा. ग्यारहवें दिन के प्रातःकाल ही हमें जोर-जोर से रोने की आवाज सुनाई दी, जो रामलुभावन के कमरे से आ रही थी.  हम पति-पत्नी दोनों दौड़े गए. हमारे आने की आहट सुन, रामलुभावन ने मुँह पर रखे गमछे को हटाया और रूलाई को दहाड़ों मे परिवर्तित कर दिया- आरे मोरे मईया, हमका बिदेसवा लूटेला हो ठगवा...  हाय रे हमरे बपऊ, अपने लरिकवा गईलऽऽ बिसराय. आंय हा हा हा !”  वह पुनः गमछे से मुँह ढककर, अपने पैरों को किसी बच्चे की तरह पटकने लगा. 
पैंतालीस साल के हट्ठे-कट्ठे, कच्ची-घानी सरसों तेल-पिलाई के बल पर मरोड़ी-मोड़ी मूंछों के मालिक- रामलुभावन का रूदन-क्रन्दन उतना ही बेमेल लग रहा था जैसे पूर्व राष्ट्र-पति मुशरर्फ की वह मुस्कान- जो हमारा मुल्क दहशतगर्दी के खिलाफ है’,  कहने के बाद उभरती थी.  संक्षेप में- उसने हिचकियों के बीच बताया कि पूरे तीने साल, दो महीने और छब्बीस दिन हो गए हैं उसे अपना घर देखे.  पता नहीं उसके घर का अब क्या हाल है? छोटे भाई का लगन हुआ कि नहीं, गड़हवा वाले खेत का मुकदिमा जीते कि हार गए, बड़की बहिन का घर से भागा देवर आपस आया कि नहीं...   आदि.  मुझे दया के साथ उस पर खीझ भी आयी तो मैने उसके घर से अब तक आई- उसीके बैग में रखी सभी चिट्ठियों का पुलिन्दा उसके सामने दे मारा. रामलुभावन अगले पाँच घन्टे तक तनमन्यता से चिट्ठियों को पढ़ता रहा और पानी पीता रहा.
मैं रात को सोने की तैयारी कर रहा था कि रामलुभावन आया और मुझसे सौडेढ़ सौ सादे काग़ज के साथ एक कलम की माँग की.  मुझे उसकी अक़्ल पर तरस आया- अब बिचारा एक-एक पत्र का उत्तर लिखेगा, भले ही सुबह हो जाए!  उसे काग़ज-कलम देकर मै सो गया.  सवेरे उठा तो पाया कि चाय के साथ काग़जों का एक भारी पुलिन्दा भी रखा है.  खोल कर देखने पर पता चला- रात में रामलुभावन ने काग़ज-कलम तो हिसाब लिखने के लिए माँगा था.  अड़सठ पन्नों पर तीन साल ग्यारह महीने से लेकर कल तक किए गए बाज़ार-खरीद का हिसाब लिखा था, पूरी तफसील से.  तेरह मार्च को जिस सब्जी वाले से नौ किलो मूली ली गयी थी उसके पास पैंतीस पैसे बाकी रह गए थे और  अगले दिन वह अपने गाँव चला गया था. यह पैंतीस पैसे पैसे अलग जोड़े गए थे. इसी तरह दो रुपये का फटा नोट जिस किरानेवाले वाले ने  दिया था,  वह दूसरे दिन साफ़ मुकर गया था कि उसकी दूकान से ऐसा नोट मिला होगा.  एक दिलचस्प बात यह लिखी थी कि होली से एक दिन पहले, जो दो रूपये हिसाब में ज्यादा बच रहे थे और उस समय पता नहीं चल पाया था- वह अब याद आ गया है.  जिस सब्जी वाले से धनिया ली थी उसे पैसे देना भूल गया था.   पूरे हिसाब के अनुसार- लिए गए थे 87,742/- और बाकी बचे थे 2,913/- रुपए. अन्त में लिखा था कि 107/- रुपए अभी दुकानदारों से लेने थे. अलग से तीन पन्नों पर बकाया तनख़्वाह और बोनस का हिसाब था, जो उसके हिसाब से 14,688/- रुपए बनता था.  सारा हिसाब पढ़कर मुझे तो लॉटरी लगने जैसी खुशी हुई और मैने उसी समय पन्द्रह हजार का बियरर चेककाट कर रामलुभावन को दे डाला. यह भी कह दिया कि सौदा-सुलफ वाले बकाया रुपए भी वही रख ले. मुझे मेगा-मेमोरी बनाने वालों के स्टुडियो का पता होता तो उसी समय कोट-पैन्ट पहन, नीली टाई बाँध कर- उनके किसी एपिसोड में ईश्वर की सौगन्ध खाने रवाना हो जाता, बिल्कुल सच!
(वैधानिक खुलासा- मुझे किसी भी देसी-विदेशी, दवा-दारू कम्पनी का स्टॉकिस्ट/एजेन्ट/भीतर-घाती आदि- कुछ भी न समझा जाय.  इस आलेख की घटनाएं कोरी कल्पना हैं और इनका सम्बन्ध मेरे समेत- किसी भी जीवित अथवा मृत प्राणी/जानवर से नहीं है. मैं ईश्वर की सौगन्ध खाकर घोषणा करता हूं मैने अपनी चेतन/अचेतन अवस्था में किसी रामलुभावन को देखा तक नहीं, न ही मेरी औक़ात किसी नौकर-चाकर को रखने की है.)
अपने साले साहब का वर्तमान निवास मात्र तीन रेलवे-स्टेशन की दूरी पर है, सो पिछले सात सालों से- प्रत्येक महीने के अन्तिम सप्ताह में प्यारी बहन के घर आने का टिकट कटा (गारन्टी से नहीं कह सकता) लेते थे.  उनके आने पर जब तक रामलुभावन उनके तीन-चार जोड़ी कपड़े   धोता था, तब तक साले साहब  की बहनजी चार-पाँच पकवान तैयार कर लेती थीं.  राम लुभावन की मेमोरी-मेगा होने बाद- जब एक दिन बाहर किसी ऑटो के रूकने की आवाज आई तो घर के सभी लोगों ने साले साहब का आगमन जान लिया. उनकी बहना बाहर निकल गई.   जब साले साहब ने किराया देने लिए प्यारी बहन से सौ रुपए का छुट्टा मांगा, तो खिड़की से ताक लगा कर देखता रामलुभावन दौड़ा आया और बोला- अरे दिनेस बाबू, ई आज का भिजिट  तीस के ऊपर सातवाँ हैं, लेकिन आप छुट्टा तो कभी लेकर आए ही नहीं.  एगारह बार तो केहू न केहू आपका साथी था, ऑटो का किराया उसी ने दिया.  आपकी आज की भूल बीस के ऊपर छठवीं बार है.  अब हमारी आददास्त के साथ तनखाह भी बढ़ गई है, लीजिए- हम ही देते हैं बियालीस रूपए.
उस दिन मुझे पता चला कि रहते-सहते घर के नौकर का स्थान रिश्तेदारों से भी ऊपर चला जाता है, यदि किसी काम आने की बात जोड़ दी जाय तो. अब तो 'मेगा-मेमोरी' के केप्सूलों में किये  निवेश का कई गुना वापस आ चुका है (फिर से वैधानिक चेतावनी). तीन छतरियॉ, ग्यारह कटोरियाँ, दो कम्बल, चार पतीले और आठ चम्मच के साथ-  एक ट्रे और एक हैन्ड-मिक्सर की भी घर में वापसी हो चुकी है.  सोलह बार चीनी, नौ बार बेसन और चार बार नमक ले जानी वाली मिसेज  घटगे ने कम से कम खाली कटोरी तो लौटा ही दी है.  अक्सर कार की उधारी करने वाले मिस्टर सक्सेना को भी पता चल चुका है कि उनकी कार में तेरह बार प्रॉबलम हो चुकी है. 
अपने काम-से-काम रखने की नीति का पालन करते हुए- मैंने किसी भी अपने-पराए को  मेगा-मेमोरीके विषय में नहीं बताया था. लेकिन, अपनी हाउसिंग-सोसाएटी की माताहारीमिसेज चूनावाला ने न जाने किस सूत्र से सारी बात का पता कर लिया.  सियार तो ठीक है, परन्तु लोमड़ी वाली चतुराई उन्ही पर उल्टी पड़ गई है.   वे अपने पति को गिनी-पिगमानते हुए-  धैर्य-पूर्वक मेगा-मेमोरी के कैप्सूलों को दाल-सब्जी डाल में कर खिलाए जा रही थीं.  पिछले महीने की 10 तारीख को मिस्टर चूनावाला की मेमोरी मेगाहो गई. बस, फिर क्या- उन्हें अग्निकुण्ड के समक्ष फेरे लेते हुए सातों खाए/खिलाए वचन याद आ गए, फलस्वरूप पत्नी को तलाक का नोटिस भिजवा दिया है.
और... और कुछ याद नहीं आता!
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शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

आप बड़े 'वो' हैं!


वो’ की शख्शियत या परिचय जानने को जमाना जितना उत्सुक पहले थाउतना ही आज भी है.  कहा जा सकता है कि आज लोग कुछ ज्यादा ही उत्सुक हैं. सबसे पहले बात आ जाती है उसकी- यानी वोजो सबसे ऊपर बैठा है.  उसका रहस्य जानने की उत्सुकता कुछ कम नहीं दुनिया के लिए.  कोई कहता है कि वह माताहै, तो कोई उसके पिताहोने का दावा करता है.  बात साफ है कि जब पता ही नहीं कि वह क्या है,  इसीलिए तो वो’ कहलाता है.  और, ‘वो’- इन सभी तर्कों से अनजान बना हुआ,  बड़े आराम से ऊपर बैठा जाने क्या-क्या गुल खिलाते रहता है.  हम देखते रह जाते हैं और वो कहाँ-कहाँ भटकाते रहता है.  लेकिन मनुष्य का स्वभाव नहीं कि हाथ पर हाथ धरे रहे और सब कुछ जैसे-का-तैसा स्वीकार कर ले. बहुत से खोजियों ने दावा किया कि उसके दीदार हो गएउसे पा लिया!  लेकिन आज तक यह सब मिथ्या ही साबित हुआ है. आखिर किसी को समझ में क्यों नहीं आता कि उसे सामने आना या मिलना-जुलना ही होता, तो वह इतने ऊपर जाकर क्यों बैठ जाता? जो कुछ भी हो- वो वोही रहेगा, और हम- हम ही रहेंगे. अत: इसे यहीं छोड़ आगे चलता हूं. 
जब मैं प्राईमरी स्कूल में पढ़ता थातो एक पतली-दुबली टीचरजी हुआ करती थीं. उनका असली नाम तो तुलसी देवी थाकिन्तु चलती आ रही स्कूली परंपरा के अनुसार सभी शिक्षक-शिक्षिकाओं के नामों की सूची में- उनका नाम सुतलीमैडम था. कहने की बात नहीं कि यह उप-नाम उनकी पतली-छरहरी काया के अनुरूप ही था. एक दिन जैसे ही छुट्टी की घन्टी बजीअपनी रूटीन के अनुसार हम सभी बच्चे क्लास-रूम से निकल कर बाहर दौड़ पड़े.  स्कूल के गेट के बाहर आकर मैं अपने साथी मोहन की प्रतीक्षा में खड़ा था. मैंने देखा कि रिक्रिेएशन रूम’ का दरवाजा खोलअपने होठों पर रूमाल फिराती मैडम सुतली बाहर निकलीं और तेज-तेज कदमों से चलने लगीं.  मेरी नजर जमीन तक लटक रहे नाड़े पर गईजो उनकी सैन्डल के नीचे आकर कभी भी... मैने घबराकर आवाज लगा दी- मैडमजीरूकिए वो...”  तेज क़दमों से चलती मैडम रुक गयीं और मुझे आग्नेय दृष्टि से देखती बोलीं- क्या वो?” मैने नजर झुका कर कहा- जी, आपका नाड़ा...”  उन्होंने अकचका कर नीचे लटकते हुए नाड़े को देखा फिर उसे संभालती- झेंपी मुस्कान बिखेर कर बोलीं- ओहनॉटी बॉय! तुम बड़े वो’ होकहाँ-कहाँ नजर घुमाते रहते हो?  बोल तो नहीं पाया किन्तु मैने मन ही मन कहा- जमीन पर. तभी तो मुझे दिख गया. 
घर आकर मैं सोच में पड़ गयाजब मैडम को मालूम था कि मैं नॉटीहूँतो फिर मुझे वो’ क्यों कहा?  रात को बिस्तर पर नींद नहीं आ रही थीउठ कर मैने पिताजी से पूछ ही लिया- बापूतुम मुझे वोके बारे में बता दो तो नींद आ जाए.”  सुनते ही बिस्तर पर लेटे पिताजी उछल कर खड़े हुए और बोले- लट्टू का बच्चा, अभी तोहका बताय दिहित हैं कि..." और तमतमाते हुए जैसे ही उन्होंने चाँटा मारने के लिए हाथ ऊपर कियामैं भाग कर माँ के पास चला गया. पिताजी बड़बड़ाए जा रहे थे- देखोससुरे जमाने को! बित्ता भर का हुआ नाहीं कि का फेर में परि गया.”  मेरी माँ तुनक कर बोली- अरे, जब लल्ला पूछ ही रहा है तो बताय काहें नहीं देतेजरा हमहूं तो सुनि लैं कि कवन है आखिर ऊ- जेकरा नामे सुनि के उछलि गए हो आ बचवा के मारे पे उतारू हुई गए.  जरूरे दाल में कुछ काला हैतभी तो लाल-पीले हुई रहे हैं. सो जा बचवा, हम जानित रहे कि सभी मरद अइसने होते हैं.
बड़ा होकर मैंने जाना कि नर और नारी- इन दोनों के वो’ होने में भी अन्तर होता है.  जहाँ नर को बड़े वो’ कहा और जाना जाता है, वहीं नारियों को केवल वो’ कहा जाता है- छोटी या बड़ी नहीं. जैसे कि नर के लिए- आप बड़े वोहैंकिन्तु नारियों के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है.  मैंने कई महिलाओं को लहराकर और बल खाकर- चलो जी, तुम बड़े वो हो, अथवा- हटिये भी, आप बड़े वो हैं, कहते देखा-सुना है. मेरी समझ में आया है कि सुनने वाले को इतने आनन्द की अनुभूति नहीं होती जितने कहने वाला लूट ले जाता है.  आगे मैंने यह भी जाना कि वोके संबोधन का विशेषाधिकार केवल महिलाओं को ही मिला है, यदि पुरुष करता है  तो अधिकार-अतिक्रमण है. 
एक अन्य प्रकार के वोके विषय में भी मिली हुई जानकारी आपसे सांझा करते चलूँ.  मैं छुट्टी के एक दिन घर में लेटा हुआ था कि अचानक गाँव से चाचाजी आ गए.  नहा-धोकर बैठे तो मै सोच मे पड़ गया कि खाने के लिए क्या करूं?  मै तो होटल-ढाबे मे खा लेता थाचाचाजी तो बाहर का पानी तक नहीं पीने वाले थे.  कुछ सोच कर सूजी का हलवा बनाया.  शुद्ध घी में बनाया हलवा दिया तो खाकर बोले- तुम इतना अच्छा हलुआ बनाते हो कि आनन्द आ गया. वाहजीते रहो."  मैं प्रसन्न हो गया और बोला, “चाचाजीक्या सचमुच इतना स्वादिष्ट हलुआ बना था? चाचाजी चम्मच चाटते बोले, “हाँबना तो था अच्छालेकिन इसमे वो’ बात नहीं जो गाँव में बनी लपसी में होता है.”  मै वो’ का अर्थ समझने की कोशिश में टुकुर-टुकुर उनका मुँह देखने लगा और सोचा कि कल फिर से बनाऊंगा हलुआ! आज ईलायची नहीं डाली थी कल डाल कर बनाऊंगादेखता हूं कि फिर क्या कहते हैं.  अगले दिन सूजी को ध्यान से भूना और ईलायची भी डाली.  चाचाजी ने एक चम्मच खाया तो बोले- वाह भतीजेतुमने तो आज का हलुआ कल से भी ज्यादा स्वादिष्ट और सुगन्धित बनाया है!”  हलुआ खत्म कर प्लेट रख कर बोले- तुम्हारा हाथ भी अब सध रहा है- लेकिन इसमें वो’ बात नहीं जो गाँव की बनी लपसी में...”  मै मन-ही-मन भन्नाने के सिवा कर भी क्या सकता था! खैरजिस दिन चाचाजी को गाँव वापस जाना था- उस दिन मैने उन्हें बताए बिना काजू-किशमिश और छुहारे डाल कर दूध के साथ हलुआ बनाया.  जैसे ही प्लेट लाया कि चाचाजी खाने से पहले निकल रही हलवे की सुगंध से ही आनन्दित हो गए- इतनी अच्छी खुशबू  है तो खाने मे कितना स्वाद आएगा बचवा!”   खाते समय कुछ नहीं बोलेजाते समय भी कुछ नहीं सुनाया.  मैने सोचा कि बोलने के लिए उचित शब्द नहीं होंगे.  ट्रेन खुलने लगी और मै नीचे उतरने लगा तो बोले- ऐसा हलुआ मैने जीवन भर में नही चखा था।.”  प्लेटफॉर्म पर उतर गया तो खिड़की के पास मुँह ला कर बोले, “लेकिन बिटुआ सुन लोसच कह रहा हूं- वो’ बात नहीं थी आज के हलुवे में जो गाँव बनी की लपसी में...
समाप्ति से पहले एक और वोका विवरण भी बताते चलूँ, यह मुझे सुधाकरजी  ने बताया था.  उनका पैतृक गाँव बाराबंकी जिले में थाजहाँ वे छुट्टियों में चले जाया करते थे.  गर्मी के दिनों में छत पर ही रात का बिस्तर लगता था. एक बार छत पर सोए थे कि उनकी नींद टूट गयी- सामने एक अप्सरा सी सुन्दरी खड़ी मिली जो उन्हें जगा देख मुस्कुराने लगी. सुधाकरजी कुछ सोचते/बोलते उसके पहले ही वोउनसे लिपट गयी.  सुधाकर जी ने बताया कि इसके उपरान्त- म्यूचुयलचीर-हरण के दौरान उनकी दृष्टि उस सुन्दरी के पैरों पर चली गयी जो पीछे की तरफ मुड़े हुए थे.   सुधाकरजी का उपजा हुआ वेग बैक-फायरकर गया  और वे घिघियाने लगे- दीदीजी, मेरी बहना... हमका जाए दीजिए...कहते हुए जिस गति से वस्त्रों का हरण किया था, उस से अधिक स्पीड से उनका वरण करने लगे.  इस पट्टाक्षेप  से अप्सरा क्रोधित हो उठी और सित्कारते हुई बोली- हलकट स्साला... मई तेरे को अब बेन दिखने-लगने लगा? अबी तो तू मेरे कपड़े ...”  तब तक सुधाकरजी को हनुमानजी का पाठ याद आ गया और उन्होंने जाप आरम्भ कर दिया. सत्रह दोहों का जाप होने तक तो बालीवुडियन टाइप की वोनकियाती हुई साम-दाम, दंड-भेद का उपक्रम करती रही.  फिर अंत में- तुझे कीड़े पड़े... तेरा कास्टिंग-काउचकर दे कोई ...आदि कहती लोप हो गयी.
इतनी ही जानकारी थी जो आपसे साँझा कर ली. आपकी दृष्टि में किसी अन्य वोके विषय में कोई जानकारी हो तो कृपया सूचित करें.
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                  आपकी प्रतिक्रियाओं से अच्छा लिखने के लिए उत्साह मिलेगा.

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

अण्डा डाल


मैं मैट्रिक पास करने के बाद नौकरी की खोज में अपने शहर लुधियाने से मामाजी के पास आ गया था, जो हरियाणा के सोनीपत में रहते थे. मामाजी फैक्ट्रियों मे खपत होने वाली डाईयों तथा केमिकल आदि के होल-सेल विक्रेता थे,  इसलिए उनकी सिफारिश पर मुझे रबर के कन्वेयर बेल्ट आदि बनाने वाली फैक्ट्री के टाईम-ऑफिस मे नियुक्ति मिल गयी.  इस ऑफिस में कर्मचारियों की हाजिरी लगाने के साथ-साथ छुट्टियों तथा प्रॉविडेन्ट-फण्ड आदि का हिसाब रखा जाता था.  मेरी नौकरी को छह महीने बीत चले थे, जब फैक्ट्री को कुछ बहुत बड़े-बड़े ऑर्डर मिले.  बढ़े हुए काम के चलते कर्मचारियों की नई-नई भरतियाँ होने लगीं.   चूंकि मै टाईम-ऑफिस मे था, इसलिए नौकरी के इच्छुक आए हुए लोगों के नाम-पते एवं शिक्षा आदि का विवरण ले रहा था.  उन्हीं में से एक ने पूछने पर अपना नाम बताया- गऊरी.   मैने कहा- बस गौरी?  तो वह बोला-  नाहीं, अगहूं है- गऊरी संकर. मै कुछ उतावलेपन से बोला- देखो, तुम्हें अपना पूरा नाम बताना है. गौरी शंकर के आगे भी कुछ है कि नहीं?  वह बहुत संयत होकर बोला- मोरज.  मैने उसका नाम लिख लिया- गौरी शंकर मौर्य. उसके माता-पिता एवं पुश्तैनी निवास के बारे मे जानकारी चाही तो  उसने कहा- जिल्ला त है सोल्तापुर, महतारी का नाम सुमिनतरा और बाप का नाम भभीखन मोर्ज.  फिर उसने अपने वर्तमान पता के विषय मे कहा- अबहीं तौ कवनो नाहीं है, हम सीधे इसपि टेलन घर से भिनसारी वाली मोटर पकरि के आई रहे हैं.  बाद मे समझ मे आया कि ईस्ट पटेल नगर बताना चाहता था. जब उसकी शिक्षा के विषय मे पूछा कि कितना पढ़े हो, तो कुछ देर सोचा फिर बोला- दुई पन्ना!  मै ऐसी किसी पढ़ाई की बात सुन कर चकित हो गया और उकता कर बोला- मै स्कूल की पढ़ाई की बात पूछ रहा हूं.  उसने अपना आत्म-विश्वास खोए बिना उत्तर दिया-  हमहूं हनुमान-चलीसा का बात करि रहे. का बतावैं, एकै पन्ना पढ़े माँ ससुरा दूई घन्टा लागि जात है. एक दिन संझा को फुरसत मिली रही तो फुलवारी मे  बईठि के बहुत जोर मारे रहे सो दुई पन्ना पढ़ि डारे. सो हम दूईये पन्ना पढ़े हैं.  मैंने संतोष की सांस ली कि आगे कुछ  और जानकारी नहीं चाहिए थी, अन्यथा मेरी हिम्मत साथ नहीं देती.
अगले दिन नए रखे लोगों को फैक्ट्री के काम के बारे मे बताया-समझाया जा रहा था.  जब गौरीशंकर का नम्बर आया तो मै जरा सोच मे पड़ गया.  मुझे इसकी सुरक्षा से अधिक उसकी चिंता थी जो इसका सामना करता.  मुझे अचानक सूझा कि ऑफिस का चपरासी बीमार है- दो दिन से नहीं आ रहा.  मैने उसे बैठने का स्टूल दिखाते हुए गौरीशंकर से कहा कि वहाँ पर बैठा करे, जब कोई पानी आदि माँगे तो पिला दिया करे.  साथ ही यह भी समझाया कि सामने पड़ने वाले अन्दर के कमरे से बड़े साहब की घन्टी बजे तो अदब से अन्दर जा कर सुन लिया करे. लन्च-ब्रेक के बाद गौरीशंकर दिखाई दिया तो मैने पूछा- कोई दिक्कत या परेशानी तो नहीं हो रही उसने ऊत्तर दिया- नाहीं, कवनो परेशानी तो नाहीं है, मुला आपसे एक बात बतावे का है, और इधर-ऊधर देखने लगा. जब तसल्ली हो गई तो फुसफुसा कर बोला- ई साहेब कवनो अच्छी साथ-संगत वाले नाहीं लगते. पाँच-सात जने आए और दरवज्जे के बहरे से बोले कि मै कमीन, तो साहेब अन्दर बुलाय लिए. अब आप ही बतावे कि बेईमान और कमीने लोगन के संग बैठना-बोलना कवनो अच्छी बात है?'  मैने उसे समझाया कि वह लोग अन्दर जाने के लिए अंग्रेजी मे पूछ रहे थे, तुम धीरे-धीरे सब समझ जाओगे.  फिर भी, अगले दिन एहतियात के तौर पर मैने उसे वहाँ से हटा कर प्रोडक्शन डिपार्टमेन्ट मे भिजवा दिया.
इसी दौरान फैक्ट्री मे एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर की पोस्ट पर किसी एक मेजर नागरानीको रखा गया.  लिए रजिस्टर मे दर्ज करने के लिए मुझे उन्होंने कागजों का एक पुलिन्दा दिया, जो रिटायरमेन्ट के बाद उन्हें मिलिट्री से मिले थे.  मैने पूरा बायो-डाटा पढ़ कर जाना कि उनका पूरा नाम मेजर पूरन चन्द नागरानी था. फैक्ट्री मे वे पी. सी. नागरानी कहे जाने लगे.  अपने लाल-भभूके चेहरे के कारण मेजर नागरानी रंग-रूप मे गोरों-चिट्टों से भी एक सीढ़ी ऊपर लगते थे. आधी से ज्यादा सफेद हो चुकी झबरी मूंछे देखने मे ताजी पनपी हुई पतले-पतले काँटों की तरह लगती थीं- एक दम सीधी और तनी. ऐसा लगता था कि उगने के बाद से उन्होंने मुड़ना नहीं सीखा था- मिलिट्री के जवानों की तरह, जो झुकना नहीं जानते. इस पोस्ट के लिए बहुत उपयुक्त- निराला और रोबीला व्यक्तित्व था मेजर नागरानी का. 
उन्हें जानने और समझने में फैक्ट्री के कर्मचारियों को एक सप्ताह का भी समय नहीं लगा. कर्मचारी जहाँ उन्हें सामने देख कर आतंकित हो जाते थे, वहीं पीछे मुड़ कर मुस्कुराने लगते. अगर वह कभी किसी को अपनी कड़कती आवाज मे कुछ कहते या डाँटते तो कोई बुरा नहीं मानता था. झिडकी या डांट खाते समय तो सभी डरने-सहम जाने  का दिखावा करते किन्तु पीठ फेरते ही मुस्कुराने और आनंद लेने लगते.  उनकी झिडकी से मानो अन्दर ही अन्दर फुलझड़ियाँ छूटने लगतीं. उनकी अनेक विशेषताओं में उल्लेखनीय बात थी- उनका उच्चारण. जैसे- फैक्टड़ी मे एक मिनट का भी लेट होने का जुड़माना, एक दिन का सैलेड़ी काट के मिलेगा.  या कभी फरमाते- टायलेट मे जा के आधा-आधा घन्टा क्या कड़ता है, अन्डा डालता है क्या? बीड़ी-तम्बाकू पीने का है तो लन्च-बड़ेक मे पियो.  फैक्ट्री के सभी लोगों को पता चल गया कि उन्हें  कहने से चिढ़ या परेशानी थी कि वह इसके स्थान पर ड़ बोलते थे.  साथ ही यह भी जान लिया कि अन्डा डालने का मतलब अन्डा देने से था.
मेजर नागरानी मुझसे बहुत प्रेम करते थे. लन्च-ब्रेक होते ही मुझे ढूँढने लगते- कोई देखो कि वह अपना राजीव सरमा कहाँ है?’ खोज-बीन शुरू होने से पहले ही मै लन्च-बॉक्स लेकर पहुँच जाया करता. मुझे बहुत आश्चर्य चर्य होता था कि मेरे लिए सड़मा न कह कर मेजर साहब सरमा कैसे बोल जाते थे. हो सकता है कि अधिक लगाव के कारण अथवा मुझे बुरा न लगे- इसलिए बोल लेते थे.  बीतते समय के साथ हम दोनों मे एक मूक समझौता जैसा हो गया था- वह मेरी ले आयी हुई सब्जी-दाल खा जाते थे और मै उनकी. फिर, खाने के बाद हम एक दूसरे से पूछ भी लिया करते थे कि कल क्या लाना है- कुछ खास? कोई स्पेशल आइटम उत्तर भी हम दोनों का एक ही होता- नहीं, इससे बढ़िया क्या स्पेशल होगा!  कभी मै कह देता कि क्या गजब के छोले थे, कभी वह बोल देते कि क्या मजेदाड़ कड़ेला था.
आगे की कहानी यह है कि मेजर नागरानी से फैक्ट्री के सभी लोग प्यार करने के साथ ही उनकी इज्जत भी करने लगे थे. उधर मेजर नागरानी भी कर्मचारियों को धमकी जरूर देते थे लेकिन कभी किसी की तनख्वाह नहीं कटने देते थे.  वह कुशलता-पूर्वक अपना काम सिर्फ डांट-डपट कर, छोटी-मोटी सजा देकर चला लेते थे. कभी कोई कर्मचारी बेकार घूमता-फिरता या बातें करता दिख जाता तो पहली बार केवल डाँट लगा कर छोड़ देते.  किन्तु देखते कि दूसरी बार भी अनुशासन-हीनता हो रही है तो कुछ-न-कुछ शारीरिक दण्ड अवश्य देते थे. उदाहरण के तौर पर उनका आदेश होता कि बाउन्ड्री के साथ चार चक्कर दौड़ कर पूरा करो, अथवा कहते कि जितनी भी स्कूटर-गाड़ियाँ अहाते मे खड़ी हैं- उन पर कपड़ा मार कर पाँच मिनट के भीतर साफ करो.  फैक्ट्री के मजदूर-कर्मचारी इस प्रकार के दण्ड से बहुत घबराते थे क्योंकि इससे बाकी लोगों मे उनकी हॅंसी उड़ती थी.  मैनेजमेन्ट के लोग आ रहे अनुशासन से प्रसन्न थे तो कर्मचारी भी ऐसे सुधारवादी कदम से खुश थे कि कम से कम उनकी मजदूरी तो नहीं कटती थी.
अब कुछ बातें गौरीशंकर मौर्य के विषय में- वह सदैव चारखाने की पूरी बाँह की शर्ट पहनता था.  जहाँ दोनो बाजू के बटन खुले रहते, वहीं सामने के बटन कभी तरतीब से नहीं लगाए होते.  मानो जाँत-पाँत या ऊँच-नीच का ख्याल करने वालों की बिरादरी नापसंद थी.  बटनों को सीध की छेद मे न लगा कर एक दो पायदान ऊपर या नीचे लगाए होते थे. जाहिर है कि अगर एक या दो से अधिक  पायदानों का अन्तर होता, तभी पता चलना संभव था.  मैं यह सब देख-सुन कभी सोचने लगता कि ना-समझ और एक सन्यासी- दोनों में कितनी समानता है!  दोनों ही अपने आस-पास के जंजालों से मुक्त और विरक्त. एक अज्ञानी के रूप में, तो दूसरा परम-ज्ञान पाकर!  बाकी, हम सब तो बीच की श्रेणी में हैं- न इधर न ऊधर!
टाइम-ऑफिस मे होने कारण फैक्ट्री के कुछ अशिक्षित कर्मचारी अक्सर मुझसे छुट्टी का प्रार्थना-पत्र आदि लिखवाने आ जाया करते. एक दिन वही गौरीशंकर मौर्य आया और बोला- बाबूजी, हमरी दूई दिन की छुट्टी का दरखास लिख दीजिए. हमको बोखार चढ़ि गया है, पूरा बदन पिरा रहा है.  मैने जैसे ही कागज-कलम सम्हाली और लिखना शुरू किया, वह मुझे डिक्टेशन सा देता बोलने लगा- लिखिए कि सोस्ती सिरी उपमा जोग ... आगे पत्र लिखे गऊरीसंकर मोर्ज के तरफ से बन्सल साहेब को परनाम... हमारा समाचार अच्छा है. आगे... हमको बोखार है, सो आप दूई दिन की छुट्टी जल्दी से जल्दी देने का किरपा करिएगा.  थोड़ा लिखा बहुत समझिएगा... चिट्ठी को तार बूझ के... मै उसकी गाँव वाली भाषा सुन कर मुस्कुराता बोल पड़ा- अच्छा-अच्छा ठीक है, मैं लिख देता हूं- और प्रार्थना-पत्र जल्दी-लिख कर उसके सामने दस्तखत करने के लिए रख दिया. उसने पेन को अपने अँगूठे पर रगड़ा, पर बॉल-प्वाईन्ट पेन होने के कारण स्याही नहीं निकली. वह कभी पेन तो कभी मुझे देखने लगा. मैने पूछा कि क्या अपना नाम लिखना जानते हो?  तब उसने कुछ हिचकिचाते हुए अपनी गरदन ‘हाँ’ कहने की मुद्रा मे हिलाई और पेन को दाहिने हाथ मे कस कर पकड़ लिया.  अपना नाम लिखने की कोशिश मे उसने बहुत मुश्किल से गौरी लिखा तो सही, लेकिन  मे ई की मात्रा बनाते हुए इतनी जोर से पेन को दबाया कि कागज फट गया और बॉल पेन का प्वाईन्ट टूट कर फर्श पर लुढ़कता हुआ कहीं गुम हो गया. यह किस्सा नहीं होता तो मुझे बात याद भी नहीं रहती.
गौरी शंकर पाजामा पहनता था, जिसकी डोरी हमेशा कमीज के नीचे तक लटकती रहती थी. कभी कोई शरारती सहकर्मी लटकती डोरी को मशीन के किसी पुर्जे मे लटका-फँसा देता और झूठ-मूठ ही शोर मचा देता कि मेजर साहब आ रहे हैं. खड़ा या बैठा हुआ गौरी शंकर हड़बड़ा कर अपनी पोजीशन दुरुस्त करने की कोशिश करने लगता. ऐसे में उसके पाजामे की फंसी हुई डोरी खिंच जाने से खुल जाती तथा पाजामा नीचे आ जाता.  चूंकि यह आम तौर से पूर्व-प्रायोजित होता था, इसलिए कर्मचारी अक्सर इस दृश्य की प्रतीक्षा में रहते.  कुछ दिनों के बाद हमारी फैक्ट्री मे एक नई मशीन आई जो लम्बे और भारी कनवेयर बेल्टों को रोल करती यानी लपेट कर बन्डल बनाती थी. नई मशीन  के पास जिन कर्मचारियों को लगाया गया था, गौरी शंकर  भी उनमे से एक था.  जब मशीन फिट हो गई तो उसका ट्रॉयल लिया जाने लगा.  किसी ने ध्यान नहीं दिया कि कपड़ों को फँसने से बचाने के लिए लगाए गए सेफ्टी-गार्ड को लॉक नहीं किया गया है. जैसे ही मशीन  का स्विच दबाया गया- बिलकुल सट कर खड़े गौरी शंकर का कुर्ता फँस गया और वह हवा मे लगभग छह फीट ऊपर टँग गया.  इस प्रकरण मे पाजामे की डोरी खुल गई और वह अपने लाल रँग के लंगोट की झलक दिखाते दुहाई देने लग गया- "अरे मरदवा, ई का भवा हमका कोई पकरि लेव, हम हवा मे उड़ा जात हैं, भईवा."  उसके इस घिघियाने पर तरस खाकर उसकी सहायता करने के स्थान पर उपस्थित कर्मचारी इस अनोखी स्थिति का रस लेने लगे.  शोर-गुल सुनकर मेजर साहब सहित कई लोग भागे चले आए.  गौरी शंकर को नीचे उतारा गया. वह अपने कपड़े ठीक करता मेजर साहब को सफाई देने लगा- साहेब, हमरी कवनो गलती नाहीं, हम भोले नाथ की किरिया उठावत हैं. ई सब चउहनवा की सरारत रहा, सार हमसे जरत है.  मेजर साहब को यह सब पच नहीं पाया और वह इन्वेस्टिगेट करने मे जुट गए.  शुरू से एक-एक सीन रि-क्रियेट करने की कोशिश होने लगी.  जलती आँखों से देखते हुए मेजर साहब गौरी शंकर को हटाकर उसके स्थान पर स्वयं खड़े हो गए- मानों कहना चहते हों कि तुम  जैसे नालायक से कुछ भी सम्भव नहीं. गौरी शंकर स्थान बदल जाने से अब मशीन के स्विच के पास खड़ा हो गया था.  मेजर साहब पूछ-ताछ करते हुए अन्तिम बात तक पहुँचे और उन्होंने पूछा कि इसके बाद क्या हुआ था? प्रश्न सुनते ही गौरी शंकर ने तत्परता से अपनी ऊंगली स्विच पर रख दी और फलस्वरूप मशीन ने मेजर साहब को हवा में! किसी को काटो तो खून नहीं!  नीचे उतारे जाने के बाद देखा कि मेजर साहब का चेहरा लाल-भभूका हो चला था, किन्तु उन्होंने गौरी शंकर को कुछ नहीं कहा- प्रत्यक्ष रूप से वह गौरी शंकर के भोलेपन के कायल हो चुके थे!
उस साल की सर्दियाँ कुछ ज्यादा जवानी लिए आई और अच्छे-अच्छे, हट्टे-कठ्ठे भी उसे सलाम बजाने लगे. आगे चलती जाती ठंढ भयंकर हो गई और फलस्वरूप मजदूरों का देर से पहुँचने का सिलसिला भी बढ़ता गया. मेजर साहब यह सब देख कर स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए स्वयं गेट पर खड़े होने लगे- ओवरकोट पहने और फेल्ट-हैट लगाए.  उन्होंने नोट किया कि मजदूर पाँच मिनट से लेकर आधे-आधे घन्टे की देरी से आ रहे हैं.  एक-दो दिन तो कड़ाके की ठंड देखते हुए उन्होंने चेतावनी देकर छोड़ दिया, लेकिन स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आया. मेजर साहब के पास देर से आने वालों के लिए दण्ड की घोषणा करने सिवा कोई चारा नहीं बचा था, इसलिए उन्होंने स्प्ष्ट चेतावनी दे डाली.  अगले दिन पांच मिनट की देरी से आने वाले को भी कान पकड़ कर शपथ लेनी पड़ी कि फिर कभी लेट नहीं होगा.  लेकिन जब देखा कि गौरी शंकर पूरे पैंतीस मिनट की देरी से पहुँचा है तो उनका पारा गरम हो गया. पहले तो उसे सिर से पैर तक निहारते हुए सोचते रहे, फिर चिल्लाते बोले- तुम इतना-इतना देड़ी से आवेगा तो फैक्टड़ी कब चालू होवेगा चलो, अण्डा डालो!  गौरी शंकर उस दिन तक अंडा-डालने वाली बात से अनजान था.  उसे बात समझ में नहीं आई तो वह उनकी मूंछों को निहारता चुप-चाप खड़ा रहा.  मेजर साहब ने अपनी बात का असर नहीं होते देख फिर दुहराया- अड़े, तुम सुना नहीं क्या? चलो, जल्दी डालो अण्डा!  उनका आदेश गौरी शंकर  तो क्या, पास खड़े नए चौकीदार तक नहीं समझ पाए.  जब मेजर साहब ने कड़कती आवाज में कहा- गलती मान के फैक्टड़ी मे जाना है कि वापस जाना है? अन्दड़ जाना है तो फटाफट से मुड़गा बनो.  अब सभी को समझ मे आया कि मुर्गा बनने को कहा गया था.  लाचार गौरी शंकर को मुर्गा बन कर अपनी एक दिन की हाजिरी बचाने में कोई बुराई नजर नहीं आई और वह शीघ्र मुर्गा बन गया. खैर उस एक मिनट में गौरी शंकर कोई अण्डा तो नहीं डाल सका किन्तु मेजर साहब को तसल्ली हो गई और बोले- वेड़ी गुड, जाओ. कल से टाईम से आना.  इस नई दण्ड-संहिता को देख-सुन कर उस दिन के बाद अधिकतर कर्मचारी  ठण्ड की चिन्ता किए बिना समय से आने लगे. कभी-कभार कोई लेट हो जाता तो गेट के अन्दर घुसते ही बिना कुछ कहे-सुने स्वयं ही अण्डा डालने का उपक्रम करने के बाद अपने कपड़े ठीक करता, फिर छाती फुला कर अन्दर चला जाता.
जिस तरह से अण्डा डालो का मुहावरा फैक्ट्री के कर्मचारियों में चर्चा का विषय बन गया, उसी तरह से काना-फूसी भी होने लग गई कि अण्डा तो बस मुर्गियाँ ही डालती हैं, मुर्गे हरगिज नहीं डालते!  मुर्गा बनने के लिए कहा जाय तो बात ठीक है, लेकिन अण्डा डालने वाली बात तो सरासर मर्दानगी को चुनौती है.  जैसे कि ऐसे में अक्सर होता है- सीधे-सादे कर्मचारियों को यह बात अपमान-जनक लगी और दिल में चुभने लगी.  भला चुभती भी कैसे नहीं, कुल मिला कर इज्जत ही तो उनकी एक-मात्र सम्पत्ति थी.  उनकी मर्दानगी को ललकारने वाली कोई भी बात इज्जत और मर्यादा को आँच पहुँचाने वाली थी. जो कर्मचारी जितना कम अशिक्षित था वह बात को उतनी ही अधिक गम्भीरता से लिए जा रहा था, कहने की बात नहीं कि इनमे से गौरी शंकर  प्रथम पंक्ति मे था.
मुझे अच्छी तरह से याद है- लगभग बीस दिन हो चुके थे और उस दिन बला की ठण्ड थी. साथ में घना कोहरा भी घिर आया था.  मै फैक्ट्री आते समय स्वेटर और कोट के बावजूद ठण्ड से काँपे जा रहा था तथा मफलर को बार-बार ठीक करता आया था.  कुछ देर के बाद हवा चलने लगी तब कोहरा तो छँट गया लेकिन ठण्ड और सूईयाँ चूभोने लगी. मै सोचने लगा था कि आज आधे कर्मचारी भी नहीं अन्दर नहीं जा पाएंगे, लेट होना जैसे एक आवश्यकता हो गई थी!  गेट के अन्दर आया तो मेरा सोचना ठीक निकला- फैक्ट्री का हूटर बज चुका था कर्मचारियों का आना अभी भी जारी था.  विशेष सह्मदयता का परिचय देते हुए मेजर साहब ने दस मिनट तक देरी से आने वालों को कुछ नहीं कहा, किन्तु उनमे गौरी शंकर नहीं था.  उस दिन वह पूरे पैंतीस मिनट की देरी से आया.  मेजर साहब ने देखते ही अपना दण्ड-सूत्र सुनाया- अब अण्डा डालो गौड़ी शंकड़!  गौरी शंकर आदेश को अनसुना करते हुए चुप-चाप खड़ा रहा तो मेजर साहब को उसकी उद्दण्डता पर बहुत आश्चर्य हुआ.  उन्होनें फिर अपना आदेश दुहराया तो अपने पाजामे की लटकती डोरी को सम्हालता- उकड़ू हो कर बैठने जा रहे गौरी शंकर ने आर्त-स्वर मे याचना की- साहेब, हमसे अण्डा मत डलवाईए, हमको अच्छा नहीं लगता है. आप हमको बैल बनने को कह दीजिए, भैंसा चाहे गदहा भी बनने को बोल दीजिए.  चाहे तो आप गोबर डलवा लीजिए, नहीं तो लीद परवा लीजिए साहेब. लेकिन ई अण्डा डालने, मतलब कि मुरगी वाला काम करने को मत कहिए. हम तो मरद हैं, मुरगा बन सकते हैं. लेकिन साहेब, मुर्गा अण्डा कैसे डालेगा?
उसकी गुहार सुन कर मेजर साहब  की हँसी  छूट गई तो बाकी खड़े लोग भी मुस्कुराने लगे.  उन्हें हँसता देख गौरी शंकर सीधा उठ खड़ा हुआ और बोला-
साहेब एक बात कहना है... आपका गोंछ देख कर हमको बहुत अच्छा लगता है, और फैक्ट्री के अन्दर भाग चला.  मैने मुस्कुराते हुए मेजर साहब को बताया कि ऊत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों की ठेठ पूरबी/भोजपुरी भाषा में मूंछको गोंछकहा जाता है.  गौरी शंकर ने मेरी शब्दावली को और समृद्ध कर दिया था.
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