भांग का सेवन
लोग-बाग बताते है कि भांग का सेवन
करने से आदमी किसी अन्य लोक में पहुँच जाता है, लेकिन होली के दिन भांग की ठंडाई पी तो मुझे नींद आ गई, और जैसा कि भांग का धर्म है- मैं स्वप्न-लोक में विचरण करने लगा.
कोई गीली, लिजलिजी सी चीज मुँह पर फिर रही थी- हल्की गरम और चिप-चिपाहट लिए
हुए. मैं हड़बड़ाया सा उठ बैठा. देखा कि एक गाय थी जो मुझे जगा पाकर शालीनता से एक ओर हट गई. उसके
रम्भाने की देर थी कि चार-पाँच लोग अचानक प्रकट हो गए. किसी के हाथ में दूध का
गिलास था, कोई चाय, तो कोई कॉफी का ‘मग’ पकड़े हुए था.
“जवन पीए का है, उ ले लीं.” एक ‘सीनियर’ से दीखते आदमी ने कहा तो मैने उसी के हाथ से चाय का कप पकड़ लिया.
“जा रे टीपना, साहेब से कह दे कि इ कवनो हुल-हीज्ज़त वाला आदमी नइखे लागत.” दूध के गिलास वाला आदमी अन्दर चला गया तो फिर उसी ‘सीनियर’ ने कहा-
“आप चाह पीजिए, तब तक साहेब भी आ रहे हैं. ‘बनजीर’ तीन दिन से फोन करत रहली, साहेब टरका रहे थे. आज गलती से खुद ही फोन उठा लिए... आप चाह पीजिए
न. अभी बात करके साहब आ रहे हैं.”
वह गया तो उसके पीछे बाकी लोग भी
चले गए. चाय का घूंट मारता हुआ आस-पास देखने लगा ताकि अपनी स्थिति का अनुमान
लगा सकूं- मुझे पता नहीं चल रहा था कि कहाँ हूँ. वह बहुत बड़ा शेड था, जिसमें नौ गायों समेत एक भैंस भी बंधी थी. मेरे बिस्तर के साथ
और भी कई बिस्तर लगे थे, फिलहाल मेरा छोड़कर सभी खाली थे. मै सोच ही रहा था ‘ये कहाँ आ गए हम वह भांग पीते-पीते’ कि बिहार शिरोमणि
अपनी लुंगी लहराते प्रकट हो गए.
“पहचाना, हम लालू जादो...” मेरे हाथ से चाय का कप गिर गया और चट् की आवाज हुई. मै कभी-टूटे कप
को कभी बिहार-विभूति को देखने लगा. मेरी घिघ्घी बन्ध गई-
“देखिए, मै कोई चोर उचक्का नहीं, आ ई- बा ई का आदमी भी नहीं, भाजपाई तक नहीं... यह सब भांग का किया-कराया है कि आज यह...” मै कहते-कहते रूक गया कि – दिन देखना था,
क्योंकि बिहार-शिरोमणि का दर्शन दुःख न होकर एक खुशी की बात थी.
“अरे! एतना घबराते काहें हो? हम को नहीं पता कि चोर-उचक्का चाहे विरोधी लोग आकर हमरा गेस्ट-हाउस
में क्यों सूतेगा? ऊ सब तो खिड़की से बाहरे-बाहर
झाँका-झाकी करने का कोशिश करता है. और, तुम चोर-चार होते तब हमरी लछमनिया अब तक तुम्हारा बिछौना पर पाँच मन
गोबर नहीं कर देती? वह सूंघ कर चिन्ह लेती है कि कौन कैसा आदमी है. लेकिन तुम हो कौन, ई तो बताना ही पड़ेगा. हमरा परिचय जान गए, अब अपना परिचय दो. मैने अपनी जेब में हाथ डाला तो मना कर दिया- “भिजिटिंग कार्ड रहने दो, मुँह से बता दो.”
“जी! आदरणीय, मुख्य मंत्री जी मेरा नाम केशव पाण्डे़य, पुत्र...”
“जी! आदरणीय, मुख्य मंत्री जी मेरा नाम केशव पाण्डे़य, पुत्र...”
“पाँडे जी, ठीक से बोलिए.”
“जी मेरा नाम केशो पांड़े...”
“धत् तेरे की, घामड़े हो पाँडे़ तुम. हमारा मतलब ई था कि तुम हमको मुख्य-मंत्री
कइसे कहा? कहीं ई बात रबड़ी देवी...” तब तक किसी महिला की लाल साड़ी दीख गई थी, “लो खुद ही आ गई” कहकर लालू जी ‘लीगल’ मुख्यमंत्री की ओर मुँह कर के खड़े हो गए.
“उ धोवन जी का फून है, कहते हैं मैडम जी टूर प्रोग्राम के बारे में बतियाना चाहती है.”
‘‘तो बतिया लीजिए, हम का रोक रहे हैं?’’ लालू जी ने अपने सीधे-सादे अंदाज में कहा तो राबडी जी कुछ नाराज सी होती
दिखीं.
“अब सुबह-साम मजाक हमको अच्छा नहीं लगता. अधिकाई करिएगा त अभीए रिजाइन
कर दूंगी.”
अचानक लालू जी के तेवर बदल गए-
“अरे! मरद-मेहरारू में मजाक चलता है तो गाड़ी भी ठीक चलती है. देखो तो, राज-काज ठीक चल रहा है, दूध-दही भी ठीके निकल जाता है. बच्चा बुतरु लोग अपना-अपना पढ़ाई ठीके
जगह पर कर रहे है. आ बात मजाक का है, त ई दुनिया ही मजाक पर टिका है. हमारा राज-काज भी मजाक है, हम भी मजाक है, तुम भी मजाक हो. और एगो बात देखे कि नहीं तुम? छव महीना पहिले पाकिस्तान में पान खाते-खाते मजाक कर दिये थे, उसका नतीजा? हो गया ना अटल बाबा का मजा. काम करे कोई आ कहते हैं कि...” बोलते-बोलते उन्हे शायद ध्यान में आ गया कि उनकी घरेलू ‘कन्फीडेन्सियल’ बातें कोई बाहर का आदमी भी सुन रहा है.
“मुख्य मंत्री जी, आप चलिए, हम अभी आते हैं,” कहकर उन्होने अपना मुंह मेरी ओर कर लिया- “कोई जियादा गड़-बड़ का बात नहीं है ना?”
मै समझ नही पाया, बस गरदन हिला दी.
“हैं! का नाम बताया था, पांड़े... इंहाँ कइसे आ गए तुम?”
“जी, भांग पीकर!” घबराहट में मेरे मुँह से निकला, मैंने भूल सुधारने की कोशिश की- “जी, मेरा मतलब है, मै अक्सर आपके विषय में सोचता रहता हूँ. कुछ पढ़ लेने के बाद पढने के
बाद सोचना पड़ता है कि नहीं? भांग पी लिया तो...”
“चलो, भांग पीकर आए हो, तो हम अब का कह सकते हैं? लेकिन तुम करते का हो?”
“जी कुछ लिखने का अभ्यास......मतलब लेखक बनने...”
“अच्छा-अच्छा। अब कुछ समझ में आया. तो तुम कहीं ‘इंटरभेऊ’ के चक्कर में त नहीं हो?” मै मान गया कि उन्हें लोग-बाग वैसे ही ‘जीनियस’ नहीं कहते.
“जी, असली बात तो यही है! मै आपका ‘इंटरव्यू’ लेने के सपने देखा करता था. अब जब कि मैने भांग पी ही ली है, मेरा मतलब कि आप साक्षात् मेरे सामने खडे़ हैं; तो क्यों न मै अपना सपना सच कर लूं ? अगर आपकी आज्ञा हो तो...”
“अरे भाई, एक भँगेड़ी को ‘इंटरभेऊ’
देने में का डर है? ए-बी-सी, सी-बी.-सी. को देने में नहीं डरे तो एक भँगेडी... हा, हा, हा. चलो, सपना पूरा होने पर कैसा सुख मिलता है, ई हम को पता है. तुम भी अपना सपना पूरा कर लो. कम से कम से एक बाभन
जात का भोट त कुछ कटेगा. हम जरा दतुअन-कुल्ला करके तैयार हो के तुमको बोलाता
हूँ, तब तक तुम भी तैयार हो लो.” मैने जेब से रूमाल निकाल कर गाय का चाटा चेहरा साफ करना चाहा, तो कुछ छिटक कर दूर जा गिरा.
मेरी सचमुच की आंख खुल गई थी और
मैं नीचे फर्श पर पड़े ‘पिज्जा’ को देख रहा था. कल पैक करवाकर लाया था, लेकिन खा नहीं पाने की वजह से बिस्तर के ऊपर बनी किताबों की रैक पर
रख दिया था.
लालू जी क्षमा करेंगें, आपकी गाय लछमनिया ने मुझे कोई चाटा-काटा नहीं था, यह पिज्जा ही मुँह पर आ गिरा था. देशी भांग और विदेशी पिज्जा
मिलकर क्या-क्या न करवा दें.
पुनश्च:..
यदि लालू जी ने तैयार होकर मुझे
बुलाया, तो इंटरव्यू का ब्यौरा अवश्य लिखूंगा.
***
यह रचना 2006 में लिखी गयी थी जब श्रीमती रबड़ी देवी
मुख्य-मंत्री थीं तथा बेनजीर भुट्टो जीवित थीं. मै लालूजी की विनोद-प्रियता का
प्रसंशक भी हूँ .