गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

भांग का सेवन


भांग का सेवन

लोग-बाग बताते है कि भांग का सेवन करने से आदमी किसी अन्य लोक में पहुँच जाता है, लेकिन होली के दिन भांग की ठंडाई पी तो मुझे नींद आ गई, और जैसा कि भांग का धर्म है- मैं स्वप्न-लोक में विचरण करने लगा.
कोई गीली, लिजलिजी सी चीज मुँह पर फिर रही थी- हल्की गरम और चिप-चिपाहट लिए हुए. मैं हड़बड़ाया सा उठ बैठा.  देखा कि एक गाय थी जो मुझे जगा पाकर शालीनता से एक ओर हट गई. उसके रम्भाने की देर थी कि चार-पाँच लोग अचानक प्रकट हो गए. किसी के हाथ में दूध का गिलास था, कोई चाय, तो कोई कॉफी का मग पकड़े हुए था.
जवन पीए का है, उ ले लीं. एक सीनियर से दीखते आदमी ने कहा तो मैने उसी के हाथ से चाय का कप पकड़ लिया.
जा रे टीपना, साहेब से कह दे कि इ कवनो हुल-हीज्ज़त वाला आदमी नइखे लागत. दूध के गिलास वाला आदमी अन्दर चला गया तो फिर उसी सीनियर ने कहा-
आप चाह पीजिए, तब तक साहेब भी आ रहे हैं. बनजीर तीन दिन से फोन करत रहली, साहेब टरका रहे थे. आज गलती से खुद ही फोन उठा लिए... आप चाह पीजिए न. अभी बात करके साहब आ रहे हैं.
वह गया तो उसके पीछे बाकी लोग भी चले गए.  चाय का घूंट मारता हुआ आस-पास देखने लगा ताकि अपनी स्थिति का अनुमान लगा सकूं- मुझे पता नहीं चल रहा था कि कहाँ हूँ.  वह  बहुत बड़ा शेड था, जिसमें नौ गायों समेत एक भैंस भी बंधी थी.  मेरे बिस्तर के साथ और भी कई बिस्तर लगे थे, फिलहाल मेरा छोड़कर सभी खाली थे. मै सोच ही रहा था ये कहाँ आ गए हम वह भांग पीते-पीते कि बिहार शिरोमणि अपनी लुंगी लहराते प्रकट हो गए.
पहचाना, हम लालू जादो... मेरे हाथ से चाय का कप गिर गया और चट् की आवाज हुई. मै कभी-टूटे कप को कभी बिहार-विभूति को देखने लगा. मेरी घिघ्घी बन्ध गई-
देखिए, मै कोई चोर उचक्का नहीं, आ ई- बा ई का आदमी भी नहीं, भाजपाई तक नहीं... यह सब भांग का किया-कराया है कि आज यह...  मै कहते-कहते रूक गया कि दिन देखना थाक्योंकि बिहार-शिरोमणि का दर्शन दुःख न होकर एक खुशी की बात थी.
अरे! एतना घबराते काहें हो?  हम को नहीं पता कि चोर-उचक्का चाहे विरोधी लोग आकर हमरा गेस्ट-हाउस में क्यों सूतेगा?  ऊ सब तो खिड़की से बाहरे-बाहर झाँका-झाकी करने का कोशिश करता है. और, तुम चोर-चार होते तब हमरी लछमनिया अब तक तुम्हारा बिछौना पर पाँच मन गोबर नहीं कर देती? वह सूंघ कर चिन्ह लेती है कि कौन कैसा आदमी है. लेकिन तुम हो कौन, ई तो बताना ही पड़ेगा. हमरा परिचय जान गए, अब अपना परिचय दो. मैने अपनी जेब में हाथ डाला तो मना कर दिया- भिजिटिंग कार्ड रहने दो, मुँह से बता दो.
जी! आदरणीय, मुख्य मंत्री जी मेरा नाम केशव पाण्डे़य, पुत्र...
पाँडे जी, ठीक से बोलिए.
जी मेरा नाम केशो पांड़े...
धत् तेरे की, घामड़े हो पाँडे़ तुम. हमारा मतलब ई था कि तुम हमको मुख्य-मंत्री कइसे कहा? कहीं ई बात रबड़ी देवी... तब तक किसी महिला की लाल साड़ी दीख गई थी,  लो खुद ही आ गई  कहकर लालू जी लीगल मुख्यमंत्री की ओर मुँह कर के खड़े हो गए.
उ धोवन जी का फून है, कहते हैं मैडम जी टूर प्रोग्राम के बारे में बतियाना चाहती है.
‘‘तो बतिया लीजिए, हम का रोक रहे हैं?’’ लालू जी ने अपने सीधे-सादे अंदाज में कहा तो राबडी जी कुछ नाराज सी होती दिखीं.
अब सुबह-साम मजाक हमको अच्छा नहीं लगता. अधिकाई करिएगा त अभीए रिजाइन कर दूंगी.
अचानक लालू जी के तेवर बदल गए-
अरे! मरद-मेहरारू में मजाक चलता है तो गाड़ी भी ठीक चलती है. देखो तो, राज-काज ठीक चल रहा है, दूध-दही भी ठीके निकल जाता है. बच्चा बुतरु लोग अपना-अपना पढ़ाई ठीके जगह पर कर रहे है. आ बात मजाक का है, त ई दुनिया ही मजाक पर टिका है. हमारा राज-काज भी मजाक है, हम भी मजाक है, तुम भी मजाक हो. और एगो बात देखे कि नहीं तुम? छव महीना पहिले पाकिस्तान में पान खाते-खाते मजाक कर दिये थे, उसका नतीजा? हो गया ना अटल बाबा का मजा. काम करे कोई आ कहते हैं कि... बोलते-बोलते उन्हे शायद ध्यान में आ गया कि उनकी घरेलू कन्फीडेन्सियल बातें कोई बाहर का आदमी भी सुन रहा है.
मुख्य मंत्री जी, आप चलिए, हम अभी आते हैं, कहकर उन्होने अपना मुंह मेरी ओर कर लिया- कोई जियादा गड़-बड़ का बात नहीं है ना?”
मै समझ नही पाया, बस गरदन हिला दी.
हैं! का नाम बताया था, पांड़े...  इंहाँ कइसे आ गए तुम?”
जी, भांग पीकर! घबराहट में मेरे मुँह से निकला, मैंने भूल सुधारने की कोशिश की-  जी, मेरा मतलब है, मै अक्सर आपके विषय में सोचता रहता हूँ. कुछ पढ़ लेने के बाद पढने के बाद सोचना पड़ता है कि नहीं? भांग पी लिया तो...
चलो, भांग पीकर आए हो, तो हम अब का कह सकते हैं? लेकिन तुम करते का हो?”
जी कुछ लिखने का अभ्यास......मतलब लेखक बनने...
अच्छा-अच्छा। अब कुछ समझ में आया. तो तुम कहीं इंटरभेऊ के चक्कर में त नहीं हो?” मै मान गया कि उन्हें लोग-बाग वैसे ही जीनियस नहीं कहते.
जी, असली बात तो यही है! मै आपका इंटरव्यू लेने के सपने देखा करता था.  अब जब कि मैने भांग पी ही ली है, मेरा मतलब कि आप साक्षात् मेरे सामने खडे़ हैं; तो क्यों न मै अपना सपना सच कर लूं ? अगर आपकी आज्ञा हो तो...
अरे भाई, एक भँगेड़ी को इंटरभेऊदेने में का डर है?  ए-बी-सी,  सी-बी.-सी. को देने में नहीं डरे तो एक भँगेडी... हा, हा, हा.  चलो, सपना पूरा होने पर कैसा सुख मिलता है, ई हम को पता है. तुम भी अपना सपना पूरा कर लो.  कम से कम से एक बाभन जात का भोट त कुछ कटेगा.  हम जरा दतुअन-कुल्ला करके तैयार हो के तुमको बोलाता हूँ, तब तक तुम भी तैयार हो लो.  मैने जेब से रूमाल निकाल  कर गाय का चाटा चेहरा साफ करना चाहा, तो कुछ छिटक कर दूर जा गिरा.
मेरी सचमुच की आंख खुल गई थी और मैं नीचे फर्श पर पड़े पिज्जा को देख रहा था. कल पैक करवाकर लाया था, लेकिन खा नहीं पाने की वजह से बिस्तर के ऊपर बनी किताबों की रैक पर रख दिया था.  
लालू जी क्षमा करेंगें, आपकी गाय लछमनिया ने मुझे कोई चाटा-काटा नहीं था, यह पिज्जा ही मुँह पर आ गिरा था.  देशी भांग और विदेशी पिज्जा मिलकर क्या-क्या न करवा दें.

      पुनश्च:..
     यदि लालू जी ने तैयार होकर मुझे बुलाया, तो इंटरव्यू का ब्यौरा अवश्य लिखूंगा.       
***

यह रचना 2006 में लिखी गयी थी जब श्रीमती रबड़ी देवी मुख्य-मंत्री थीं तथा बेनजीर भुट्टो जीवित थीं.  मै लालूजी की विनोद-प्रियता का प्रसंशक भी हूँ .

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

Thap-Thap (Assamese Translation)



থপ-থপ


গাড়ী কেতিয়া আহিব তাৰ সঠিক খবৰ পাব পৰা নাছিলো৷ ইফালে পিয়াহতে মোৰ ডিঙি লুকাই গৈছিল৷ কিযে আচৰিত স্টেচন এই বাঙ্কুৰা৷পানীৰ পাইপ ফাটি গৈছিল, দুদিন ধৰি পানী অহা নাছিল৷ চাই দেখিলো, প্লেটফৰ্মত খুব বেছি আঠ-দহজনমান মানুহ হব৷ 

পিয়াহত আতুৰ হৈ মই স্টেচনৰ পৰা বাহিৰ ওলাই গলো৷ তিনিজন ৰিক্সাৱালা আছিল৷ এজনক সুধিলত চহৰ যাবলৈ মান্তি হল৷ বহাৰ লগে লগে কলে, “এসপ্তাহ ধৰি চহৰত সংঘৰ্ষ চলি আছে, মই বেছি ভিতৰলৈ নাযাওঁ৷মোৰ বিশ্বাস আছিল যে কোনো ধাবা বা ৰেস্টোঁৰা পাই যাম, চহৰৰ ভিতৰলৈ যোৱাৰ প্ৰয়োজন নহব৷
দহ মিনিটৰ পাছত ৰিক্সাখন ৰৈ যোৱাত মই মনে মনে নামি পৰিলো৷ পইচা দি, নিজৰ বেগটো উঠাই খোজ ললোঁ৷ কোনো খোলা দোকান নেদেখিলো, কোনো মানুহ অহা-যোৱা কৰাও চকুত নপৰিল৷ ঘড়ীলৈ চকু দিলো- ৰেডিয়ামযুক্ত কাঁটাডালে নবজাৰ সংকেট দিছে মাথোন৷ সম্মুখত আলিবাটৰ টি-পইন্ট এটা আহি পৰাত মই মন নকৰাকৈয়ে বাওঁপিনে ঘুৰিলো আৰু এনেকুৱা পৰিস্থিতিত সচৰাচৰ কৰাৰ দৰে --- যি ঘৰৰ সম্মুখত ছয় গণা শেষ হল সেই ঘৰৰ দুৱাৰমুখতে থিয় হৈ দিলো৷ দুৱাৰত ঢকিয়াব খুজি দেখোঁ, দুৱাৰখন এনেই জপাই থোৱা আছে৷ 

ঘৰত কোনোবা আছেনে?” বুলি মাত দিওঁতেই ভিতৰৰ পৰা মাত লগালে, “আহক প্ৰভু৷অতিথিক ভগৱান বুলি মনা কথাটো মই শুনিছিলো, কিন্তু এই প্ৰভুসম্বোধনটো শুনি থতমত খাই গলো৷ পিয়াহে মোৰ শালীনতাৰ সীমাৰ পৰিধি অলপ সৰু কৰি পেলাইছিল৷ ভিতৰ সোমাই গলো আৰু দেখিলো যে এজন শকত-আৱত মানুহে কঁকালত মাথোন গামোছা এখন মেৰিয়াই থিয় হৈ কলৰ বাকলি গুচাই খাই আছে৷ মোক দেখি মিচিকিয়াই হাঁহিলে আৰু কাষৰ চকীখনৰ পিনে ইঙ্গিত দি কলে, “আসন গ্ৰহণ কৰক৷.. নিশ্চয় ভোকে-পিয়াহে আহিছে, লওঁক, কলকে খাওঁক৷তেওঁ হাত আগবঢ়াই দিয়াত মই ডিঙি লৰাই- শুকাই যোৱা ডিঙিৰে কোনোমতে মাত উলিয়াই কলো-, অলপ পানীকে খুৱাওক৷
সেই মহাশয় হয়তো অলপ ধেমেলিয়া প্ৰকৃতিৰ আছিল, নহলে অত্যধিক শালীনপানীৰ বটলৰ লগতে বিয়েৰ আৰু থাম্পচ আপৰ বটলো লৈ আহিল৷ মই গোটেই বটল পানী খালী কৰি দিলো আৰু অলসভাবে কাষৰ চকীখনত বহি পৰিলো- আশা কৰা মতেই তেখেতে কোনো আপত্তি নকৰিলে৷ অত্যন্ত নীৰস বাতাবৰণটো অলপ সজীব কৰিবলৈ মোৰ মুখেৰে ওলাই আহিল, “ এনেকুৱাও হব লাগেনে যে স্টেচনত এটুপিও খোৱা-পানী নাই? চাওঁকচোন, বাধ্য হৈ মই ইমান দূৰ আহিবলগীয়া হমানুহজনে মোৰ পিনে নাচালেই যেন ঘৰলৈ সোমাই অহাৰ বাবে বাধ্য হৈহে কিবা এটা অজুহাত দেখুৱাইছোঁ৷
শৰীৰলৈ অলপ শক্তি অহাত মই থিয় হৈ বিদায় লব খুজিলো – 
'বাৰু, আপোনাক ধন্যবাদ৷ মই আহোঁ৷” 
তেখেতে তপৰাই কলে, “ এনেদৰে কেনেকৈ হব প্ৰভু৷ অভ্যৰ্থনা নকৰাকৈ আপোনাক কেনেকৈ যাবলৈ দিওঁ? সিপুৰীলৈ যোৱাৰ পাছত মোক মোৰ কুল-দেৱতাই কি ক, হাঁ? আপুনি বহক, আহাৰ গ্ৰহণ কৰক৷ ৰাতিৰ কথা, শয়ন-জিৰণ কৰক৷ কিন্তু ক্ষমা কৰিব, আহাৰ আপুনি নিজে বনাই লব লাগিব৷” 

মই এনেকুৱা কোনো অপ্ৰত্যাশিত পৰিস্থিতিৰ কাৰণে সাজু নাছিলো, কিবা কোৱাতকৈ মনে মনে থকাই ভাল বুলি ভাবিলো৷ মনলৈ চিন্তা এটা আহিল আৰু সুধিবৰ মন গল ঘৰৰ বাকী সদস্যবোৰ কলৈ গল বুলি৷ কিন্তু পানী খোৱাৰ পাছত শালীনতাৰ সীমা আকৌ আগৰ স্থানলৈ ওভটি গৈছিল৷ গতিকে সোধাটো অনুচিত বুলি ভাবিলো৷ তেওঁৰ ভোজন আৰু শয়নৰ প্ৰস্তাৱটোৰ বিষয়ে চিন্তা কৰিবলৈ ধৰিলো৷ এটা বেয়া পৰিস্থিতিতো হৈ আছিলেই৷ নাজানো স্টেচনত বা কিমান সময় পাৰ কৰিব লাগিব আৰু উভটি যাবলৈ বা ৰিক্সা পাম নে নাপাম৷ আতিথ্য স্বীকাৰ কৰাটোৱেই মই উচিত দেখিলো৷ 

মই ক'লো. "কওঁক, পাগঘৰটো কোন ফালে আছে৷ একো নহলেও ভাত-দাইলতো মই বনাই ল'ব পাৰিম৷"

দাইল আৰু ভাতৰ কাৰণে পানী উতলিবলৈ দি মই পাগঘৰৰ পৰা ওলাই আহি দ্ৰইংৰুমৰ চকীত বহি পৰিলো৷ পাগঘৰত উশাহ বন্ধ হোৱাৰ উপক্ৰম হৈছিল৷ বেৰত আঁৰি থোৱা ফটো এখনলৈ মোৰ চকু গ'ল৷ চাৰিগৰাকী মহিলা ফটো উঠাৰ ভংগিমাৰে দ্ৰইং-ৰুমৰ এই চকী কেইখনতে বহি আছিল৷ চিনি পাইছিলো৷ অনুমান কৰিলো যে সংঘৰ্ষ চলি থকা কাৰণে পৰিয়ালৰ মহিলাসকলক কোনো নিৰাপদ ঠাইলৈ পঠিয়াই দিয়া হৈছে৷ সেয়েহে ইমান দিন ব্যৱহাৰ নোহোৱা বাবে পাগঘৰত উশাহ বন্ধ হবলগীয়া পৰিবেশ হৈ আছে৷ মোৰ সহানুভুতি উপজিল৷ বেচেৰা পৰিয়ালৰ সদস্যবিলাক৷ ইফালে এই মহাশয়ে ইয়াত ঘৰ পহৰা দি আছে আৰু বাকী লোকবোৰ বা ক'ত কি অৱস্থাত আছে?

এই সাম্প্ৰদায়িক সংঘৰ্ষত লিপ্ত মানুহবোৰ মই বৰ বেয়া পাওঁ৷ মানুহক মাৰ-পিট কৰে, সা-সম্পত্তি জ্বলাই দিয়ে আৰু পাছত সেই ক্ষতিপূৰণৰ নামত গম নোপোৱাকৈ নিজৰেই কঁকাল বেকা হয়৷

এটা মহে কুঁ কুঁৱাই থকা দেখি অভ্যাস বশত: মই ততালিকে হাত চাপৰি মাৰি মহটো চেপেটা কৰি পেলালো৷ কিন্তু সেই মহোদয়ৰ হঠাৎ গৰ্জন শুনি ভয় খাই গ'লো---"দুষ্ট, তুমি ক'ত সাহস পালা হিংসাৰ আশ্ৰয় ল'বলৈ?" 

তেওঁ ডাইনিং টেবুলত থকা ছুৰিখন হাতত তুলি ল'লে৷ মই নাৰ্ভাচ হৈ পৰিলো-- "মহোদয়... কব নোৱাৰাকৈয়ে মই... মই মহ সহ্য কৰিব নোৱাৰো, বহুতো বেমাৰো বিয়পায়- মেলেৰীয়া, ফ্লু..." মই পৰিস্থিতি নিয়ন্ত্ৰণ কৰিব বিচাৰিলো৷ 

তেওঁৰ মুখৰ টান হৈ উঠা শিৰবোৰ কিছু নৰম হ'ল আৰু ছুৰিখন আগৰ ঠাইত থৈ দিলে৷ তেওঁৰ দৃষ্টি ডাইনিং টেবুলতেই আছিল-- 

"প্ৰভু, ইয়াত হিংসা কৰা নিষেধ৷ মই মোৰ জীৱন-কালত ইমান হিংসা দেখিছো যে সাধাৰণ কথাতে নিজৰ নিয়ন্ত্ৰণ হেৰুৱাই পেলাওঁ৷ কিন্তু এতিয়া অনুশোচনা হয়... অলপ ৰ', এতিয়াই আহিছো৷" 

মহোদয় বেগাই ওলাই গ', মোৰ আশংকা আৰু বৃদ্ধি পালে--কোমল হৃদয়ৰ মানুহ যেন লাগিছে, একো অঘটন নঘটালেই হয়৷ অহ, এটা সমাস্যাৰ পৰা হাত সৰাৰ লোভত ক'ত যে সোমাই পৰিলো এতিয়া৷ তেনেতে সেই মহাশয় হাতত এগাঁঠ নোট লৈ সোমাই আহিল আৰু মোৰ হাতত গুজি দি ক'লে-

"যাওক, বজাৰৰ পৰাই কিবা খোৱা-বস্তু লৈ আহক৷ এই ৰন্ধা-বঢ়া কামটো পুৰুষৰ বাবে শোভা নাপায়৷" 

মই চাই দেখিলো, এশটকীয়া নোটৰ গাঁঠ এটা, অৰ্থাৎ একেবাৰে দহ হেজাৰ টকা! তেওঁৰ ফালে চোৱাত ক'লে

"দ্ৰয়াৰৰ তলাটো খুলিব পৰা নাছিলো, ভাঙি দিলো৷ এতিয়া আপুনি এই গাঁঠটো খুলিবৰ প্ৰয়োজন নাই, দোকানীয়ে হিচাব কৰি পইচা লৈ বাকীকিনি ঘুৰাই দিব৷" 

কোনো কথা নকৈ বা একো প্ৰতিবাদ নকৰি মই পাগঘৰলৈ গৈ গেচ বন্ধ কৰিলো আৰু চুপ-চাপ বাহিৰ ওলাই গ'লো৷

বাহিৰৰ পৰিবেশ আগতকৈ ভালেখিনি সলনি হৈ গৈছিল৷ জ্বলি থকা লাইটৰ সংখ্যা কমি গৈছিল৷ এই কথাটো মই বাহিৰ ওলোৱাৰ আগতেই মনত পেলোৱা উচিত আছিল যে চহৰৰ ভিতৰলৈ অহাৰ সময়ত মই সকলো দোকান-পোহাৰ বন্ধ দেখিছিলো৷ হঠাৎ মনলৈ এটা ভাব আহিল৷ জেপত দহ হেজাৰ টকা আছে, উভটি কিয় যাওঁ? এনেকুৱা মনোভাৱৰ মানুহজনৰ বাবে বিশেষ একো সলনি নহ'ব কিন্তু মোৰ দৰে মাহে সাত-আঠশ টকা দৰমহা মানুহৰ বাবেতো বহু কিবা-কিবি হ'ব৷ কিন্তু বিবেক পৃথিবীৰ সকলোতকৈ ডাঙৰ শক্তি, ঈশ্বৰতকৈও বেছি৷ গতিকে আৰু কেইখোজমান যোৱাৰ পাছত উভটি খোজ ল'লো৷ আগতেও সকলো দোকান বন্ধই পাইছিলো৷ 

মহোদয়ক টকাখিনি ঘূৰাই দি ক'লো-

" সকলো দোকান বন্ধ, ঘৰ-বাৰীত কোনো সা-শব্দ নাই৷ এই সংঘৰ্ষ..." 

মহাশয়ে মোৰ পিনে চালে, একো নোকোৱাত মই পাগঘৰলৈ সোমাই গৈ গেচ স্টোভটো আকৌ জ্বলাই দিলো৷ দাইল আৰু চাউল খোলা কেৰাহীত বহাই দি মহাশয়ৰ ওচৰত আহি বহি পৰিলো-- 

"শোৱাৰ ব্যৱস্থা ক'ত হ', বেগটো থৈ মই লুঙীখন পিন্ধিব বিচাৰিছিলো৷" তেওঁৰ টোপনি ধৰা যেন অনুমান হৈছিল৷ গতিকে মই সৰু মাতেৰে সুধিলো৷

স্টেচনৰ পৰা এতিয়ালৈকে মোৰ শৰীৰটো কেইবাবাৰো ঘামেৰে লুতুৰি পুতুৰি হৈছে, কাপোৰ সোলোকাই ভালদৰে হাত-মুখ ধোৱাৰ প্ৰয়োজন আছিল৷ টুপনিয়াই  থাকিয়েই তেওঁ ক'লে

"আপোনাৰ যিটো কোঠা ভাল লাগে তাতেই থিতাপি লওঁক....আৰু আপোনাৰ সেই লুঙীখন উলিয়াই মোক দি দিয়ক৷ বহুদিন হৈ গ'ল লুঙী নিপিন্ধা৷ আৰু এইখিনিও আপুনিয়েই ৰাখক৷" শেষৰ বাক্যটো তেখেতে টেবুলত থকা নোটৰ গাঁঠটোৰ পিনে দেখুৱাই ক'লে৷ 

তেখেতৰ কথা শুনি মই আচৰিত হ'লো৷ ইমান ধনী মানুহ আৰু এখন লুঙী পিন্ধিবলৈ ইমান লোভ! আৰু এতিয়া এই টকাখিনি মোৰ লগত ৰখা কি দৰকাৰ? মহাশয়ে মোক আঠ-দহদিনৰ বাবে অতিথি কৰিব বিচৰা নাইতো? মই কালি কলিকতাত উপস্থিত হৈ চাৰ্ভেৰ ৰিপোৰ্ট জমা দিব লগা আছে৷ 
মই নিজৰ বেগ খুলিলো আৰু হাঁহি মাৰি লুঙীখন উলিয়াই তেখেতৰ হাতত গুজি দিলো৷ ডাইনিং টেবুলত থকা ফলৰ খালী পাচিটোত টকাৰ গাঁঠটো থোৱাৰ পাছত কোঠালীৰ ভিতৰ সোমাই বেগটো থলো৷ চাৰিও পিনে চালো- বা: কি বিশাল আৰু আটক-ধুনীয়া কোঠা! ইমান ধুনীয়াকৈ সজোৱাটাটা-বিৰলা নাইবা আম্বানী ভ্ৰাতৃদ্বয়ৰ কোঠাবোৰো কিজানি এনেকুৱাই৷ যদিহে বহুত পাৰ্থক্য আছে তেনেহলে মোৰ কল্পনাৰ সীমাৱদ্ধতাহে দায়ী৷ মই ভাবিলো, মহাশয়ৰ ধেমেলীয়া স্বভাব বা অঁকৰামি যিয়েই নহওঁক লাগে, একোতো অবাবতে কৰা নাই৷ ধন-বৈভৱে মানুহৰ মানসিকতাৰ পৰিৱৰ্তন আনে, লাগিলে তেওঁলোকৰ শিক্ষা যেনেকুৱাই নহওঁক কিয়৷ 

মোৰ প্ৰিয়গীত, "আগে ভী জানেনা তু, পিছে ভী জানে না তু, জো ভী হে, বচ য়হী এক পল হে" মুখেৰে গুণগুণাই কোঠালিৰ পৰা ওলাই পাগঘৰত সোমালোগৈ-সাত-আঠ মিনিট লাগিল, দাইল-ভাত তৈয়াৰ হৈ গ'ল৷ ৰেকত থকা কাহীঁ-বাতি উলিয়াই ধুই মচি ল'লো আৰু বাহিৰ ওলাই সুধিলো- 

"খোৱা-বোৱা কৰা ভাল নেকি? ৰাতি বাৰ বাজিবৰ হ'ল৷"
শিথিল হৈ পৰি থকা মহাশয় সাৰ পাই উঠিল- ' আপুনি মুখ-হাত ধুলেনে? মই উত্তৰ দিলো, নাই, সম্ভৱ নহয়, কাৰণ মই পিন্ধিবৰ বাবে এযোৰ কাপোৰেই লৈ আহিছিলো ৷ এতিয়া এইযোৰ পিন্ধি মুখ-হাত ধোৱা... চিন্তা কৰিব নালাগে , মই ঠিকে আছো৷ তেওঁ মুখেৰে অদ্ভুত শব্দ এটা কৰি মনে মনে থাকিল৷ মই কল্পনা কৰিব পাৰিছিলো- পৰিয়ালৰ অনুপস্থিতিকে ধৰি, সংঘৰ্ষগ্ৰস্ত এই চহৰৰ তথা তেখেতৰ নিজৰ অৱস্থাওতো শোচনীয়, এনে অৱস্থাত কোন কিমান মুখৰ অথবা স্বাভাবিক হৈ থাকিব পাৰে?

মই ডাইনিং টেবুলত আহাৰ ৰাখি মাত লগালো, "আহাৰ ঠান্ডা হ'ব মহাশয়, উঠক৷" কোনো প্ৰতিক্ৰিয়া চকুত নপৰাত ভাবিলো কিজানি গভীৰ টোপনি, ওচৰলৈ গৈ লাহেকৈ কান্ধত ধৰি জোকাৰিলো৷ তেওঁ যেন ভয় খাই উঠি থিয় হ'ল আৰু হাত-ভৰি বতাহত জোকাৰিবলৈ ধৰিলে৷ মুখেৰে এনেদৰে মাতো ওলাল

" পলা... দুষ্ট...তোমালোক সকলোকে এদিন নহয় এদিন..." মই অলপ ডাঙৰ মাতেৰে ক'ব ল'গা হ'ল তেওঁক তন্দ্ৰা অথবা টোপনিৰ পৰা জগাবলৈ

" ভাত.. ভাত বাঢ়ি দিছো....৷" 

হয়তো সংঘৰ্ষৰ সৈতে লিপ্ত মানুহৰ স'তে ঘটা ঘটনাৰ দৃশ্য টোপনিত জীৱন্ত হৈ পৰিছিল৷ তেওঁ মোলৈ চালে, তাৰ পাছত ভাপ ওলাই থকা ভাত-দাইলখিনিলৈ৷ মই চকীত বহিলত তেৱোঁ বহি পৰিল৷ পাগঘৰত থকা বয়মৰ পৰা আচাৰৰ অলপ মচলা দাইলত মিহলাই দিছিলো৷ খাবলৈ সোৱাদ হৈছিল৷ দুই-তিনি গৰাহমান আহাৰ পেটত পৰাত পৰিবেশটো অলপ পাতল হ'ব ধৰিছিল৷ বহু সময় ধৰি এটা কথা মোৰ ভাল লগা নাছিল৷ মহাশয়ে মোৰ নাম জনা নাছিল, আৰু সংকোচ কৰি মইও তেওঁক নাম সোধা নাছিলো৷--- " কেতিয়াবা আকৌ আপোনাক লগ পাব লাগিলে... মই মোক আলহী সোধা মানুহজনৰ নামেই সোধা নাই..." দুই-তিনি ঘন্টাৰ মূৰত মহাশয়ৰ মুখত পুনৰ হাঁহি দেখিলো-- "নাই, মই নাম নকওঁ!" তেওঁৰ কথা শুনি মোৰ চুটি ফ্ৰেন্সকাট দাড়িয়ে মোক বিন্ধিবলৈ ধৰিলে৷ কিন্তু তেওঁৰ প্ৰতি মোৰ শ্ৰদ্ধা আৰু বাঢ়ি গ'ল৷ কিমান যে সঁচা কথা- এই মৰা-কটাৰ সময়ত ইয়াতকৈ ডাঙৰ উদাহৰণ একো হ'ব নোৱাৰে৷ এই পৰিচয়টোৰ কাৰণেইতো পৃথক-পৃথক হোৱা বা কৰোৱাৰ বাবে প্ৰৰোচনাৰ সৃষ্টি হয়৷

বাহি বাচনবোৰ পাগঘৰত থোৱাৰ পাছত কৰ্তব্য বুলি ভাবি যেতিয়া সমুখৰ দুৱাৰ জপাবলৈ গ'লো তেতিয়া মহাশয়ে বাধা দিলে-- "বন্ধ নকৰিব, কোনো চিটিকনি বা শলখা লগুৱাটো অসভ্যতা৷ আপুনি আহোঁতে জানো দুৱাৰখন বন্ধ আছিল?"

মহাশয়ৰ মুখত আগৰ নিচিনাই হাঁহি জিলিকি আছিল৷ তেওঁ কেৱল সৰল আৰু বিনোদন প্ৰিয়ই মাথোন নহয়, অত্যন্ত শিক্ষিত আৰু সভ্যও৷ তেওঁক যদি আকৌ লগ পাব পাৰিলোহেতেন! এতিয়াতো সংঘৰ্ষই গেটেই ভূগোলেই সলনি কৰি দিছে৷

বিচনাত আহি বহিলো৷ চাইদ টেবুলত লেম্পৰ কাষত দুটা ৰিমোট আছিল৷ এটাৰ বুটাম টিপিলত এয়াৰ-কন্ডিচনাৰটো চলিল৷ মোৰ অনুমান অনুসাৰেই দ্বিতীয়টো টিভিৰ বুলি প্ৰমাণ পালো৷ টিভি অন হোৱাৰ লগে-লগে ক্ৰিকেট খেলৰ প্ৰসাৰণ দেখা গ'ল৷ মোৰ বাবে এয়া জীৱনত প্ৰথম বাৰৰ বাবে এক অদ্ভুত বিলাসিতা যেন অনুভৱ হ'ল৷

মই লোভনীয় কোমল বিচনাখনত বাগৰ দিলো৷ টোপনিয়ে নিজৰ প্ৰভাৱ দেখুৱাবলৈ আৰম্ভ কৰিছিল৷ তেতিয়াই মোৰ চকু গ'ল দুৱাৰৰ বন্ধ চিটিকনিডাললৈ৷ অহ, তেখেতেতো চিটিকনি লগাবলৈ মানা কৰিছিল৷ মই ভাবিব ধৰিলো, তেখেতৰ মনোভাবৰ প্ৰতি সন্মান জনাই চিটিকনিডাল খুলি দিওঁ নেকি? এনে দোধোৰ-মোধোৰ অৱস্থাত থাকোঁতেই মই দুৱাৰত থপৰিউৱা শব্দ শুনিলো৷ হে ৰাম, কি অনৰ্থ! নিশ্চয় মহাশয়ে চাব বিচাৰিছে মই এজন দুটকীয়া নীচ মানুহ নেকি- যি শালীনতাৰ পৰা সদায় আঁতৰত থাকে? অথবা পঢ়া-শুনা কৰা সম্ভ্ৰান্ত এক কুলীন ব্যক্তি? বেগাই বিচনাৰ পৰা নামিলো আৰু জোতা বিচাৰিলো৷ এপাত জোতা বিচনাৰ তললৈ সোমাই গ'ল কিজানি৷ চাবলৈ তললৈ হাউলি দিওঁতে কিবা এটা কাণত পৰাত মনটো টিভিলৈ আকৰ্ষিত হ'ল৷ বিচনাৰ পৰা উঠাৰ সময়ত ৰিমোটৰ কোনোবাটো বুটাম টিপা যোৱাত চেনেল সলনি হৈ গৈছিল৷ টিভিত ঘোষকে কৈ আছিল- ".. এই পাগলজনৰ ৰং বগা, ওখই ছয় ফুট তিনি ইঞ্চি ৷  এই কুখ্যাত হত্যাকাৰী আৰু মানসিক ৰোগী অৰ্ধেন্দু সান্যাল তৃতীয় বাৰৰ বাবে জেলৰ পৰা পলায়ন কৰিছে৷ বাঙ্কুৰা বা আশে-পাশে কোনো গাৱঁত লুকাই থাকিব পাৰে..."

মোৰ এনেকুৱা লাগিল যেন গোটেই কোঠাটো ঘূৰিব ধৰিছে- ছয় ফুট তিনি ইঞ্চিৰ বগা ৰঙৰ পাগল...জেলৰ পৰা পলোৱা...আগতে ইমান ঘাম ওলোৱা মোৰ মনত নপৰে৷ জোতাৰ কথা পাহৰি গ'লো৷ ঘোষকজনে কৈ গ'ল.." এই চৰম অৱহেলাৰ বাবে জেলৰ কৰ্তব্যৰত কৰ্মচাৰী আৰু...."

মাত স্পষ্ট নাছিল কিন্তু দুৱাৰত হোৱা থপ-থপ ঘনাই হবলৈ আৰম্ভ কৰিছিল৷

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মূল (হিন্দী): কেশৱ পান্ডে
অনু: ড০মাখন লাল দাস 
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