‘वो’ की शख्शियत या परिचय जानने को जमाना जितना
उत्सुक पहले था, उतना ही आज भी है. कहा जा सकता है कि आज लोग कुछ ज्यादा ही उत्सुक हैं. सबसे पहले बात आ जाती
है उसकी- यानी ‘वो’ जो सबसे ऊपर बैठा
है. उसका रहस्य जानने की उत्सुकता कुछ कम नहीं दुनिया के लिए. कोई कहता है कि वह ‘माता’ है,
तो कोई उसके ‘पिता’ होने
का दावा करता है. बात साफ है कि जब पता ही नहीं कि वह क्या है,
इसीलिए तो ‘वो’ कहलाता है. और, ‘वो’- इन
सभी तर्कों से अनजान बना हुआ, बड़े आराम से ऊपर बैठा
जाने क्या-क्या गुल खिलाते रहता है. हम देखते रह जाते
हैं और वो कहाँ-कहाँ भटकाते रहता है. लेकिन मनुष्य का स्वभाव नहीं कि हाथ पर
हाथ धरे रहे और सब कुछ जैसे-का-तैसा स्वीकार कर ले. बहुत से खोजियों ने दावा किया
कि उसके दीदार हो गए, उसे पा लिया! लेकिन आज तक
यह सब मिथ्या ही साबित हुआ है. आखिर किसी को समझ में क्यों नहीं आता कि उसे सामने
आना या मिलना-जुलना ही होता, तो वह इतने ऊपर जाकर क्यों बैठ
जाता? जो कुछ भी हो- वो ‘वो’ ही रहेगा, और हम- हम ही रहेंगे. अत: इसे यहीं छोड़
आगे चलता हूं.
जब
मैं प्राईमरी स्कूल में पढ़ता था, तो एक पतली-दुबली
टीचरजी हुआ करती थीं. उनका असली नाम तो तुलसी देवी था, किन्तु
चलती आ रही स्कूली परंपरा के अनुसार सभी शिक्षक-शिक्षिकाओं के नामों की सूची में-
उनका नाम ‘सुतली’ मैडम था. कहने की बात
नहीं कि यह उप-नाम उनकी पतली-छरहरी काया के अनुरूप ही था. एक दिन जैसे ही छुट्टी
की घन्टी बजी, अपनी रूटीन के अनुसार हम सभी बच्चे
क्लास-रूम से निकल कर बाहर दौड़ पड़े. स्कूल के गेट के
बाहर आकर मैं अपने साथी मोहन की प्रतीक्षा में खड़ा था. मैंने देखा कि ‘रिक्रिेएशन रूम’ का दरवाजा खोल, अपने होठों पर रूमाल फिराती मैडम सुतली बाहर निकलीं और तेज-तेज कदमों से
चलने लगीं. मेरी नजर जमीन तक लटक रहे नाड़े पर गई, जो उनकी सैन्डल के नीचे आकर कभी भी... मैने घबराकर आवाज लगा दी- “मैडमजी, रूकिए वो...” तेज क़दमों से चलती मैडम रुक गयीं और मुझे आग्नेय दृष्टि से देखती बोलीं- “क्या वो?” मैने नजर झुका कर कहा- “जी, आपका नाड़ा...” उन्होंने अकचका कर नीचे लटकते हुए नाड़े को देखा फिर उसे संभालती- झेंपी
मुस्कान बिखेर कर बोलीं- “ओह, नॉटी
बॉय! तुम बड़े ‘वो’ हो, कहाँ-कहाँ नजर घुमाते रहते हो?” बोल तो नहीं पाया किन्तु मैने मन ही मन कहा- जमीन पर. तभी तो मुझे दिख
गया.
घर
आकर मैं सोच में पड़ गया, जब मैडम को मालूम था कि
मैं ‘नॉटी’ हूँ, तो फिर मुझे ‘वो’ क्यों
कहा? रात को बिस्तर पर नींद नहीं आ रही थी, उठ कर मैने पिताजी से पूछ ही लिया- “बापू, तुम मुझे ‘वो’ के बारे में बता
दो तो नींद आ जाए.” सुनते ही बिस्तर पर लेटे
पिताजी उछल कर खड़े हुए और बोले- “लट्टू का बच्चा, अभी तोहका बताय दिहित हैं कि..." और तमतमाते हुए जैसे ही उन्होंने
चाँटा मारने के लिए हाथ ऊपर किया, मैं भाग कर माँ के
पास चला गया. पिताजी बड़बड़ाए जा रहे थे- “देखो, ससुरे जमाने को! बित्ता भर का हुआ नाहीं कि ‘ऊ’
का फेर में परि गया.” मेरी माँ
तुनक कर बोली- “अरे, जब लल्ला पूछ ही
रहा है तो बताय काहें नहीं देते? जरा हमहूं तो सुनि लैं
कि कवन है आखिर ऊ- जेकरा नामे सुनि के उछलि गए हो आ बचवा के मारे पे उतारू हुई गए. जरूरे दाल में कुछ काला है, तभी तो लाल-पीले
हुई रहे हैं. सो जा बचवा, हम जानित रहे कि सभी मरद अइसने
होते हैं.”
बड़ा
होकर मैंने जाना कि नर और नारी- इन दोनों के ‘वो’ होने में भी अन्तर होता है. जहाँ नर को ‘बड़े वो’ कहा और जाना जाता है, वहीं नारियों को केवल ‘वो’ कहा जाता है- छोटी या बड़ी नहीं. जैसे कि नर के लिए- आप ‘बड़े वो’ हैं, किन्तु
नारियों के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है. मैंने कई महिलाओं को लहराकर और बल खाकर-
चलो जी, तुम बड़े वो हो, अथवा- हटिये
भी, आप बड़े वो हैं, कहते देखा-सुना
है. मेरी समझ में आया है कि सुनने वाले को इतने आनन्द की अनुभूति नहीं होती जितने
कहने वाला लूट ले जाता है. आगे मैंने यह भी जाना कि ‘वो’ के संबोधन का विशेषाधिकार केवल महिलाओं को ही
मिला है, यदि पुरुष करता है तो
अधिकार-अतिक्रमण है.
एक
अन्य प्रकार के ‘वो’ के
विषय में भी मिली हुई जानकारी आपसे सांझा करते चलूँ. मैं
छुट्टी के एक दिन घर में लेटा हुआ था कि अचानक गाँव से चाचाजी आ गए. नहा-धोकर बैठे तो मै सोच मे पड़ गया कि खाने के लिए क्या करूं? मै तो होटल-ढाबे मे खा लेता था, चाचाजी तो बाहर
का पानी तक नहीं पीने वाले थे. कुछ सोच कर सूजी का
हलवा बनाया. शुद्ध घी में बनाया हलवा दिया तो खाकर
बोले- “तुम इतना अच्छा हलुआ बनाते हो कि आनन्द आ गया. वाह, जीते रहो." मैं प्रसन्न हो गया और बोला, “चाचाजी, क्या सचमुच इतना स्वादिष्ट हलुआ बना था?” चाचाजी चम्मच चाटते बोले, “हाँ, बना तो था अच्छा, लेकिन इसमे ‘वो’ बात नहीं
जो गाँव में बनी लपसी में होता है.” मै ‘वो’ का अर्थ समझने की कोशिश में टुकुर-टुकुर
उनका मुँह देखने लगा और सोचा कि कल फिर से बनाऊंगा हलुआ! आज ईलायची नहीं डाली थी
कल डाल कर बनाऊंगा, देखता हूं कि फिर क्या कहते हैं.
अगले दिन सूजी को ध्यान से भूना और ईलायची भी डाली. चाचाजी ने एक चम्मच खाया तो बोले- “वाह भतीजे, तुमने तो आज का हलुआ कल से भी ज्यादा स्वादिष्ट और सुगन्धित बनाया है!” हलुआ खत्म कर प्लेट रख कर बोले- “तुम्हारा हाथ भी अब
सध रहा है- लेकिन इसमें ‘वो’ बात
नहीं जो गाँव की बनी लपसी में...” मै मन-ही-मन
भन्नाने के सिवा कर भी क्या सकता था! खैर, जिस दिन
चाचाजी को गाँव वापस जाना था- उस दिन मैने उन्हें बताए बिना काजू-किशमिश और छुहारे
डाल कर दूध के साथ हलुआ बनाया. जैसे ही प्लेट लाया कि
चाचाजी खाने से पहले निकल रही हलवे की सुगंध से ही आनन्दित हो गए- “इतनी अच्छी खुशबू है तो खाने मे कितना स्वाद आएगा बचवा!” खाते समय कुछ नहीं बोले, जाते समय भी कुछ नहीं
सुनाया. मैने सोचा कि बोलने के लिए उचित शब्द नहीं होंगे. ट्रेन खुलने लगी और मै नीचे उतरने लगा तो बोले- “ऐसा
हलुआ मैने जीवन भर में नही चखा था।.” प्लेटफॉर्म
पर उतर गया तो खिड़की के पास मुँह ला कर बोले, “लेकिन
बिटुआ सुन लो, सच कह रहा हूं- ‘वो’ बात नहीं थी आज के हलुवे में जो गाँव बनी की लपसी में...”
समाप्ति
से पहले एक और ‘वो’ का विवरण भी
बताते चलूँ, यह मुझे सुधाकरजी ने
बताया था. उनका पैतृक गाँव बाराबंकी जिले में था,
जहाँ वे छुट्टियों में चले जाया करते थे. गर्मी के दिनों में छत पर ही रात का बिस्तर लगता था. एक बार छत पर सोए थे
कि उनकी नींद टूट गयी- सामने एक अप्सरा सी सुन्दरी खड़ी मिली जो उन्हें जगा देख
मुस्कुराने लगी. सुधाकरजी कुछ सोचते/बोलते उसके पहले ही ‘वो’
उनसे लिपट गयी. सुधाकर जी ने बताया कि
इसके उपरान्त- ‘म्यूचुयल’ चीर-हरण के
दौरान उनकी दृष्टि उस सुन्दरी के पैरों पर चली गयी जो पीछे की तरफ मुड़े हुए थे.
सुधाकरजी का उपजा हुआ वेग ‘बैक-फायर’ कर गया और वे घिघियाने लगे- ‘दीदीजी, मेरी बहना... हमका जाए दीजिए...’ कहते हुए जिस गति से वस्त्रों का हरण किया था, उस से
अधिक स्पीड से उनका वरण करने लगे. इस पट्टाक्षेप
से अप्सरा क्रोधित हो उठी और सित्कारते हुई बोली- “हलकट स्साला... मई तेरे को अब बेन दिखने-लगने लगा? अबी
तो तू मेरे कपड़े ...” तब तक सुधाकरजी को हनुमानजी
का पाठ याद आ गया और उन्होंने जाप आरम्भ कर दिया. सत्रह दोहों का जाप होने तक तो
बालीवुडियन टाइप की ‘वो’ नकियाती हुई
साम-दाम, दंड-भेद का उपक्रम करती रही. फिर अंत में- ‘तुझे कीड़े पड़े... तेरा ‘कास्टिंग-काउच’ कर दे कोई ...’ आदि कहती लोप हो गयी.
इतनी
ही जानकारी थी जो आपसे साँझा कर ली. आपकी दृष्टि में किसी अन्य ‘वो’ के विषय में कोई जानकारी हो तो कृपया सूचित
करें.
*****
आपकी प्रतिक्रियाओं से अच्छा लिखने के लिए उत्साह मिलेगा.